गोभिलगृह सूत्रस्य | Gobhilgrah Sutrasya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
271
श्रेणी :
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No Information available about पं सत्यव्रत समश्र्मी - Pt. Satyavrata Samasrami
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूसिक्षा हु
पुरोडाश ( यक्षपिप्टक ) निद्योप करे ( श्थोत् उस पुरोडाश द्वारा य्ष
करे ) इस प्रकार ब्राह्मण भाग में सब से पहिले दीक्षणीयेट्टि का वणेव है ।
( गदि ब्राह्मण भागानुत्तार आश्वलायन कहपसूत्र होता, तो दीक्षणीया इष्टि
पहिले लिखना उचित था ) यहां इन सब युक्तियों के उत्तर में यह कहा
जाता है कि ब्रत्त यज्ञादि (अध्ययन या अध्यापन) णय (मन्त्र जप) के शमु-
सार भन्त्रकाणद प्रवतत छुआ है, मायानुछ्ठान प्रणाली से नहीं। (जो याम
पहिले करना पड़ता, उन के भल्त्र पहिले लिपियहु हैं, ऐसा नहीं । जो ८;
से पहिले शिष्प को पढ़ाना पढ़ता अर्थात् पढ़ने की प्रया है एवं कितसे सल्त्रों,
का जप करने से याक्षिक लोग शिस मणशाली का शअवलम्बन करते, तदनुभार
भन््त्री का आगे पीछे पाठ करना द्वीता है ) अह्मयज्ञ छा भी पिघात्र हेया
जाता है जैसे-एक भी ऋक, सास, या यजुवेद् का, जो पाठ रूरना पह्ुतर यही
च्रद्मयज्ञ है। इस ब्रह्मपत् या वेदाध्ययन में (ऋक्संहिता पढ़ने से) सउतेपहिलेशलि
गीले” इत्यादि पढ़ने का नियम है ! वाचस्तोस में सब ऋजू, सब यजु; झरैर सम,
साम. जउच्चारण फरे, ऐसा विधि है ।[ यहां सम्प्रदाय सिद्ध झर्थोत् गुरु परम्परा
चलित क्रम अनुसार पाठ करना पड़ता ] आाश्विन ग्रह” प्रयेन्त काने पर भी
यदि सर्योदुय न हो, सब दाशतरी सन््त्र पतठ करे, ऐसर विधान है । शोर
प्रसिग्रहकारी प्रभूति उपयासी को तीनवार बेदाध्ययन ( प्रायश्चित )
करनेका विधान दिखलतते हैं । [यहां सी सम्प्रदाय सिद्ठ क्रम शादर णीय हैं]
एन भय सन्त्रकाणीं का विनियोग अधोत् जहां जिन कई सन्त्रों का पाठ
करना पड़ता, उस स्थान ( यज्ञादि) में शब्यापक [ घेदपाठक ] सम्प्रदाय
प्रचलित क्रम-[पूर्वापरणाव] को सादर ग्रहण करना पड़ता। फिसीएकसन्त्र की
किसी एक काये में विभियक्त करने में ( सीमांसादश्शन म्रतिपादित ) श्रति
लिड, वाक्य, प्रकरण, प्रभूति प्रसाशानुत्तार आश्यायनादि श्राचा््यों ने
अन्त्रों का विनियोग किया है !( श्रुक्ति लिट्नू, प्रभूति का विशेष विश्वरण
सीमांसाद्शन में देखे) यदि ऐसा हुआ तो सन्त्रकाणद का क्रम न होने पर भो
कोई दिरोध नहीं । इपेत्वथा” इत्यादि सन््त्र सब शित प्रकार झवतम्धन
कर यागादि करें करमा होता, उसी फ्रमानयायी भाव से विधि बह रिया
गया है। शाश्वलायन, गोमिल आदि से दमसी नियमानुसार कह्पसन्न निर्माण
किया है। ठधी नियम से 'आम्नात हुस््श है. शतएवं जपादि में बद्ी सि-
सम ग्राद्य है ।
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