प्रथमालंकार निरूपण | Prathamalankar Nirupan

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Prathamalankar Nirupan by चन्द्रशेखर शास्त्री - Chandrashekhar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमालड्डारनिरुपण ८४७८० ८७७८२ अनुप्रास अनुप्रास शब्द का अथ है रसे के अनुरूप सरश वर्णा' का विन्यास । स्वरों के बिना भी केवल व्यज्ञनों की समता दोन पर थह झलड्भार होता है | इसके प्रधान तीन भेद छेंकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, और लाटाजुप्रास । लक्षण स्वर समेत अच्छर पदनि आवत सदृश प्रकाश | भिन्न अभिन्न पदन सों छेक लाट अनुप्रास ॥ स्वर सहित अक्त रों की जहाँ समता हो उसे छेकानुप्रास कहते हैं, ओर स्वरसहित जहाँ पदों की समता हो उसे लाटा- नुप्रास कहते हैं । पद चाहे भिन्न हों या अभिन्न, अर्थात्‌ वे दुसरे अर्थ के वाचक हो, या समान। यह लक्षण भूषण कवि का है। दूसरे परिडर्ता की राय कि ब्यञज्ञनों की समता होनी चाहिए, खरों की कोई बात नहीं, अतेक वर्णां की जहाँ एक बार समता हो वहाँ छेकालुप्रास समभना चाहिए। एक या अनेक वर्णा की जहाँ अनेक बार समता हो वहाँ वृत्यजुप्रास होता है | लाटालुपास वहाँ होता. हैं जहाँ पक द्वी पद दो बार आवबे, और केवल तात्पर्य उनका भिन्न हो |




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