सोहन काव्य - कथा मंजरी भाग - 8 | Sohan Kavya - Katha Manjari Bhag - 8
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
126
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अवसर दे सेवा का मुभको कहकर जल मंगवाय 1
सना किया जोगिन ने फिर भी राजा माना नांय जी ॥1१९८।।
प्रक्षालल कर चरणोदक को भूपति कट पी जाय।
प्राज्ञ प्रसादे 'सोहन मुनि कहे नृप भक्ति बतलाय जी ॥१९९॥
इस कारज को जोगिन श्रच्छा नहीं समझा मन सांय ।
पतिदेव चरणोदक पीवे रही मानवती पछताय जी 11२००॥।
असली रूप प्रकट कर रू मैं कीना हृदय विचार ।
किन्तु राज हुठ भूप दपे लख शांत हुई उस वार जी ॥।२०१॥।
राजा श्राप्रह करके कह रहा रहिये महल मंझार ।
प्रण करता हूँ सदा श्रापको चल श्राज्ञा भ्रनुसार जी 11२०२॥।।
हां-हां करते सभी सभासद बोले पश्रापके दास ।
नाथ हमारे करें प्रार्थना प्रण करिये श्रास जी ॥1२०३॥।
आ्राप सभी का श्राग्रह मुझको बंधन में दिया डाल ।
कितु भीड़ में रहना योगी देते उसको टाल जी 11२०४।।
एकांत स्थान ही पसन्द हमें जहां नहीं दूसरा आ्राय |
चले साधना सुखद हमारी वही स्थान हम चाय जी 11२०५॥।
आप सभी की देख भावना एक बार श्रा जाऊं।
दिन में कभी श्राप्रको दर्शन देकर वापिस जाऊं जी ॥1२०६॥।
हाथ जोड़कर सभी सभासद दीना शीश्ष नमाय |
सत्यवादी होते हैं साधु ऐसी मन में लाय जी 11२०७॥।
जोगिन बोली मेरी शर्तें हो नृप को स्वीकार ।
बिना सुने ही भूपति बोला स्वीकृत शर्तें हजार जी ॥1२०५॥1।
अच्छी तरह से पहले सुन लो करलो खूब विचार ।
नम्र भाव हो नरप्ति बोला फरमावे लू धार जी ॥२०९॥
वहली छातें है मुझ भ्राज्ञा बिन नगर छोड़ नहीं जावे ।
दूजी शर्ते यह कहना मेरा सत्त्य रूप हो जावे जी 11२१०॥
एक शर्तें क्या ? श्रनेक छत्तें हैं मुकको स्वीकार ।
झभूप कहे दर्शन हो जावे धन्य मानू' श्रवतार जी ॥२११॥
त्तव से ही नित सभा भवन में जोगिन जी श्रा जाय ।
क्षण की देरी युग सम माने नृप व्याकुल हो जाय जी 11२१२।॥।
उज्जैनी का एक वरणिक चल मुगी पद्रणा श्राय |
यहां मार्ग में मिला एक नर प्रेम सहित ठहराय जी 11२१३॥।'
पूछा यहां का नाथ कौन है सभी सुनावों हाल ।
सत्यवादी वीतिज्ञ यहां का दलथंभरा शभूपाल जी ॥२१४।॥
१२
User Reviews
No Reviews | Add Yours...