पझपुराणम | Padpuranam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ५३ पच्छइ इदंभूइ आयरिए। पुणु धम्मेण गुणालंकरिएं । पुण पहचे ससाराराए | कित्तिहरेण अणुत्त रवाएं पुणु रविपेणायरियपसाए | बुद्धिए अवगाहिय कइराएं । अर्थात्‌ यह रामकथारूपी सरिता वर्द्धमान जिनेन्द्रके मुखरूपी कन्दरासे अवतीर्ण हुई है '*तदनन्तर इन्द्रभूति आचार्यको, फिर गुणालकृत सुधर्माचार्यको, फिर प्रभवको, फिर अनुत्तरवाग्मी श्रेष्ठव क्ता कीतिधरको प्राप्त हुई है । तदनन्तर रविपेणाचार्यके प्रसादसे उसी रामकथा-सरितामें अवगाहन कर .... इस प्रकार स्वयम्भू द्वारा समर्थित रविपेणके उल्लेखसे जान पडता हैं कि उनके पद्मचरितका आधार आचार्य कीतिधर मुनिके द्वारा सदव्ध रामकथा हैं। पर यह कीतिघर कोन हैं ? इनका आचार्य परम्परामें उल्लेख देखनेमें नही आया । तथा इनकी रामकथा कहाँ गयी ? इसका कुछ पता नही चलता । हो सकता है कि कवि परमेश्वरके वागर्थसग्रहपुराण' के समान छुप्त हो गयी हो । पउमचरिय और पद्मचरित उधर जब रविपेणके द्वारा प्रतिपादित अपने पद्मचरितका आधार कीतिधर मुनिके द्वारा प्रतिपादित रामकथाको जानते है और इधर जब विमलसूरिके उस प्राकृत 'पउमचरिय को जिसकी कथावस्तु प्रतिपादन जैली, उद्देग अथवा पर्वोके समानान्त नाम एवं कितने ही स्थछोपर पद्मयोका अर्थसाम्य भी देखते है तब कुछ द्विविधा-सी उत्पन्न होती हैं । पठमचरियमें विमलसूरिने ग्रन्थ निर्माणका जो समय दिया है उससे वह विक्रम सबत्‌ ६० का ग्रन्य सूचित होता है और रविपेणका पदुमचरित उससे ६७४ वर्ष पीछेका प्रकट होता है । यदि रविपेण पठमचरियकों सामने रखकर अपने पदुमचरितर्में उसका पललवन करते हैं तो फिर एक जैनाचार्यको इस विपयमें उनका कृतज्ञ होकर उनका नामोल्लेख अवश्य करना चाहिए था पर नामोल्लेख उन्होंने दुमरेका ही किया है. .यह एक विचारणीय बात है । 'पउमचरिय' का निर्माण समय वही हैं जिसका कि विमलसूरिने उल्लेख किया है, इसपर विश्वास करनेको जी नही चाहता। मनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ में श्री प परमानन्दजी शास्त्रों सरसावाका “वठमचरियका अन्त परीक्षण” श्योप॑क एक महत्त्वपूर्ण लेख छपा था। शास्त्रीजीकोी भाज्ञा लेकर उन्हीके द्दोमे मैं यहाँ वह लेख दे रहा हूँ जिससे पाठकोंकों विचारार्थ उचित सामग्री सुलभ हो जायेगी । पउमचरिय का भअन्त.परीक्षण पउठमचरिय' प्राकृत भापाका एक चरित ग्रन्थ है, जिनमें रामचन्द्रकी कथाका अच्छा चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थक्रे कर्ता विमलसूरि है। प्रन्यक्ताने प्रस्तुत ग्रन्थमें अपना कोई विशेष परिचय न देकर सिर्फ यही सूचित किया हैं कि---स्वसमय और परसमयके सदुभावको ग्रहण करनेवाले 'राहू' वाचार्यके शिष्य विजय ये, उन विजयके शिष्य नाइल-कुलू-नन्दिकर मुझ विमल' द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया है )॥ यद्यपि रामकी कथाके सम्वन्धमें विभिन्‍न कवियों द्वारा अनेक कथाग्रन्थ रचे गये है परन्तु उनमें जो उपलब्ध है वे सब पठमचरियकी रचनासे अर्वाचीन कहें जाते हैं। क्योंकि इस ग्रन्थमें ग्रन्थका रचनाकाल वीर निर्वाणसे ५३० वर्ष वाद अर्थात्‌ विक्रम सवत्‌ ६० सूचित किया है। भ्रन्थकारने इस ग्रन्थमें उसी रामकथाको प्राकृत- भाषामें सूत्रो सहित गायावद्ध किया बतलाया है जिसे प्राचीनकालमें भगवान्‌ महावीरने कहा था, जो बादको १ राहू सामायरिओं ससमय परसमय गहिय सब्भावों । विजयो य तस्स सीसो साइलकुल वस नन्दियरों ॥११७॥ सीसेण तस्स रइय राहुवचरिय तु सूरि विमलेणं। --पउमचरिय, उद्देंस १०३




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