समयपाहुड | Samayapahud
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
454
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गाया विषय
७४-७५ जबतक कोघादि ,भास्व और शुद्धात्म
स्वभाव इनका मेंदशान नहीं जानता है
तबतक मिथ्यात्वी है|
कतृंकर्म प्रवृत्ति की निवृत्ति कब होतो है ।
ज्ञानमात्रसे ही वंधनिरोध होता है ।
आत्मा किस प्रकारकी भावनासे ऋषादिसे
निवत्तंता है !
जिस समयमें स्वानुभव होता है उसही समयमें
रायादि आस्रवोंसे निवृत्ति होती है ।
द्वितीयस्थछकी समुदाय पातनिका
'यह आत्मा ज्ञानी हुआ है' यह जाननेका साधन
व्यवहारसे आत्मा पुण्यपापादि परिणामींको
करता है।
पुदुगलकर्मकों जानते हुओ जीवका पुद्गलके
साथ तादात्म्य सबंध नहीं है ।
अपने संकल्पविकल्परूप परिणामकों जानते
हुओ भी उस परिणामके निमित्तसे उदयागत-
कर्मके साथ तादात्म्यसंबंध नहीं है ।
पुद्गलकमंफलको जानते हुओ जीवका
पुद्गलकर्मफलके निमित्तसे द्रव्यकर्मके साथ
निशचयनयसे करत कर्ममाव नहीं है ।
जीवपरिणामको, स्वपरिणामको और ह्वपरि-
णामके फलको न जानते हुओ पुद्गलका
निरचयनयसे जीवके साथ कुकर्म माव नहीं है ।
से ८८ जीवके परिणाममें मौर पुद्गलके
परिणाम परस्पर निमित्तपना है, तथापि
निरचयनयसे दोनोंका परस्परमें कुकर्म भाव
नहीं है ।
निश्चयनयसे जीवका स्वपरिणामोंके साथ
कतृऊर्ममाव और भोक्तृभोग्यमाव हैं ।
लोकव्यवहार
तृत्तीयस्थलकी पातनिका
एक द्रव्य अपनी और दूसरे द्रव्यकोी क्रिया
करता है ऐसा मानना जिनमतः नहीं -है-।॑
९२ द्विक्रियावादी मिथ्यादुष्टि है ।
९३ उसका ही विशेष व्यास्यान
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(२)
विषय पृष्ठ
९४ आत्मा चिद्रूप आत्ममावोंकों करता है और
पुद्गलद्रब्य अचितनमय द्रव्यकर्मादिपरमावोंको
करता है ।
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१७०७
जीवरूप भावस्रत्यय १०१
शुद्धच॑तन्यस्वमाववाले जीवको भिध्यात्वादि
विकार कैसे उत्पन्न होते हैं इसका उत्तर १०१
आत्मा अपने मिथ्यात्वादि विकारी भावोंका
कर्ता है ।
जिस समय आत्मा को अपने मिथ्यात्वी
भावोंका कर्तृत्व है उसी समय करमंवर्गणायीग्य
पुद्गलद्रव्य स्वयं उपादानरूपसे द्रव्यकर्मरूप
१०२
परिणमता है । १०३
निदचयसे वीतरागस्वसंवेदनशानका
अभाव ही भअज्ञान है। इसलिये अनज्ञानसे ही
कर्म होते हैं १७४
वीतरागस्वसंवेदननानसे ही कर्म नहीं
होते हैं । श्ण्५
से १०३ अज्ञानसे कर्म क्यों होता है ?
इसका उत्तर १०६
शुद्धात्मानुमवलक्ष णवाले सम्यग्लानसे
सर्वेकर्मकर्तृत्वका नाश होता है । १११
/४ एक द्रव्य दूसरे द्वश्यके परमावोंका
कर्ता है ” ऐसा मानना मृढता है । ११३
मूढता करना अयोग्य है । ११३
केवल उपादानरूपसे कर्ता नहीं है, किन्तु
निमित्तरुपसे भी कर्ता नहींह । ११४
वीतरागस्वसंवेदनशानी ज्ञानका ही कर्ता है
ओर परमभावका कर्ता नहीं है । ११५
अज्ञानी भी रागादिख्प अज्ञानका कर्ता है,
तो भी ज्ञानावरणादि परद्रव्यका कर्ता
नहीं है । ११७
किसी मी प्रकारसे ठपादानरूपसे परमाव
करनेके लिये शाक््य नहीं है । ११८
इसलिये आत्मा पुद्गलकर्मोका कर्ता
नहीं है । ११९
० आत्मा द्रव्यकर्तको करता है ” ऐसा
कहना उपचार है। १२०
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