समयपाहुड | Samayapahud

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Samayasar Tatparyvratti by जयसेनाचार्य- Jaysenacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाया विषय ७४-७५ जबतक कोघादि ,भास्व और शुद्धात्म स्वभाव इनका मेंदशान नहीं जानता है तबतक मिथ्यात्वी है| कतृंकर्म प्रवृत्ति की निवृत्ति कब होतो है । ज्ञानमात्रसे ही वंधनिरोध होता है । आत्मा किस प्रकारकी भावनासे ऋषादिसे निवत्तंता है ! जिस समयमें स्वानुभव होता है उसही समयमें रायादि आस्रवोंसे निवृत्ति होती है । द्वितीयस्थछकी समुदाय पातनिका 'यह आत्मा ज्ञानी हुआ है' यह जाननेका साधन व्यवहारसे आत्मा पुण्यपापादि परिणामींको करता है। पुदुगलकर्मकों जानते हुओ जीवका पुद्गलके साथ तादात्म्य सबंध नहीं है । अपने संकल्पविकल्परूप परिणामकों जानते हुओ भी उस परिणामके निमित्तसे उदयागत- कर्मके साथ तादात्म्यसंबंध नहीं है । पुद्गलकमंफलको जानते हुओ जीवका पुद्गलकर्मफलके निमित्तसे द्रव्यकर्मके साथ निशचयनयसे करत कर्ममाव नहीं है । जीवपरिणामको, स्वपरिणामको और ह्वपरि- णामके फलको न जानते हुओ पुद्गलका निरचयनयसे जीवके साथ कुकर्म माव नहीं है । से ८८ जीवके परिणाममें मौर पुद्गलके परिणाम परस्पर निमित्तपना है, तथापि निरचयनयसे दोनोंका परस्परमें कुकर्म भाव नहीं है । निश्चयनयसे जीवका स्वपरिणामोंके साथ कतृऊर्ममाव और भोक्तृभोग्यमाव हैं । लोकव्यवहार तृत्तीयस्थलकी पातनिका एक द्रव्य अपनी और दूसरे द्रव्यकोी क्रिया करता है ऐसा मानना जिनमतः नहीं -है-।॑ ९२ द्विक्रियावादी मिथ्यादुष्टि है । ९३ उसका ही विशेष व्यास्यान ७७ ७८ जि ८ न््च् <२ <३ टों <५ <६ <९ ९ ९ ना पृष्ठ | गाषा ७८ ७९ ८० ८१६ <२ ८५ ८६ <८७ ८८ ९२ श्े ९५ ९६ ९८ 5९ (२) विषय पृष्ठ ९४ आत्मा चिद्रूप आत्ममावोंकों करता है और पुद्गलद्रब्य अचितनमय द्रव्यकर्मादिपरमावोंको करता है । ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०१ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १० ० ११० १११ ११२ १७०७ जीवरूप भावस्रत्यय १०१ शुद्धच॑तन्यस्वमाववाले जीवको भिध्यात्वादि विकार कैसे उत्पन्न होते हैं इसका उत्तर १०१ आत्मा अपने मिथ्यात्वादि विकारी भावोंका कर्ता है । जिस समय आत्मा को अपने मिथ्यात्वी भावोंका कर्तृत्व है उसी समय करमंवर्गणायीग्य पुद्गलद्रव्य स्वयं उपादानरूपसे द्रव्यकर्मरूप १०२ परिणमता है । १०३ निदचयसे वीतरागस्वसंवेदनशानका अभाव ही भअज्ञान है। इसलिये अनज्ञानसे ही कर्म होते हैं १७४ वीतरागस्वसंवेदननानसे ही कर्म नहीं होते हैं । श्ण्५ से १०३ अज्ञानसे कर्म क्‍यों होता है ? इसका उत्तर १०६ शुद्धात्मानुमवलक्ष णवाले सम्यग्लानसे सर्वेकर्मकर्तृत्वका नाश होता है । १११ /४ एक द्रव्य दूसरे द्वश्यके परमावोंका कर्ता है ” ऐसा मानना मृढता है । ११३ मूढता करना अयोग्य है । ११३ केवल उपादानरूपसे कर्ता नहीं है, किन्तु निमित्तरुपसे भी कर्ता नहींह । ११४ वीतरागस्वसंवेदनशानी ज्ञानका ही कर्ता है ओर परमभावका कर्ता नहीं है । ११५ अज्ञानी भी रागादिख्प अज्ञानका कर्ता है, तो भी ज्ञानावरणादि परद्रव्यका कर्ता नहीं है । ११७ किसी मी प्रकारसे ठपादानरूपसे परमाव करनेके लिये शाक्‍्य नहीं है । ११८ इसलिये आत्मा पुद्गलकर्मोका कर्ता नहीं है । ११९ ० आत्मा द्रव्यकर्तको करता है ” ऐसा कहना उपचार है। १२०




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