आग की लकीर | Aag Ki Lakir

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Aag Ki Lakir by अमृता प्रीतम - Amrita Pritam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ देर तक नन्‍्दा के कानों में भझत-को खामोश्ी छाई रही। न भाषा कमरे से बाहर झाए, न नन्‍्दा उनके मुँह का वदलता हुमा रंग देख सकी | फिर उनकी आवाज़ भाई--नन्दा, माँ को झरा इधर भेज दो ।/ नन्दा ने देखा--लाज जब उनके कमरे में गई तो कमरे का खुला हुमा दरवाजा भीतर से भेड दिया गया । बन्दा भ्रनुप्तान लगा रही थी--कि पापा उस खुशी की बात सबसे पहले लाज वीवो से कर रहे ये जो उन्होंने श्राज वडे महँगे दामों खरीदी थी*** काफी देर वाद दरवाज्ञा खुला। लाज वीबी वाहर आई। नन्‍्दा उनके चेहरे की तरफ किसी उत्साह से नहीं देसना चाहती थी, बह इतना पूछ सकी--“वी जी, फ्रीज्र मे कीमा पड़ा हुआ है कवाव वना दूँ? . लाज बीबी भीगी हुई ग्रांसों से मुस्करा रही थी । उन्होंने घीरेन्से हाँ में सिर हिला दिया, और फिर, सन में झाया हुआ उबाल जैसे अकेले उनके मन से झेला न गया हो, कहा--“बना लो, तुम्हारे पापा को अच्छे लगते हैं “तुम्हारे पापा'**” लाज बीबी की भावाय मे एक उदास-शी खुशी थी “मैंमे किसी रूगवानु को तो देसा नही, पर वह जरूर तेरे पापा जता होगा 17 श्रव नन्‍्द/ के पास लाज बीवी के मुँह की तरफ़ देखने का, भौर देखे जाते का, एक स्वाभाविक अवसर था, सो वह मुँह की तरफ देसती रही । लाज बीवी का मुह युध भी था, और संजीदा भी, शायद कुछ उदास मी *** नन्दा जुगशी में मिली हुई उदाम्ती को पहचान रही थी--शायद इसलिए कि बहू खत को पढ़ चुकी धी--नही तो झायद वह खुशी श्रौर उदासी के इस मेल को पहचान गे पाती*** भ्रव कुछ पूछ सकना मी स्वाभाविक था, पर नन्दा को कुछ सुझ नहीं रहा धा। लाज बीवी ने स्वयं ही उत्की कुछ पूछती-सी नजरों को समर लिया, भोर हथेली से उसके गाल को दुलार कर कहा, हे. »॥ 3 >ओ+ -सिननन शनि काश नाप्ज आरी सयमा में नहीं झा तू बहुत बड़ी है। जाएगा भौर नन्दा अनजान उम्र के इलज्ञाम की कूल कर वक्त के सवाल से जैंते छूट-सी गई! रह




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