जगदगुरुवैभवम् | Jagadguruvaibhavam

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Jagadguruvaibhavam by मधुसूदन ओझा - Madhusudan Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ श्री; ॥ (| ( मानवजाति का प्राचीन इतिहास ) -+-२श्अक६६०----- इतिहास शब्द 'इति? 'ह” आस? इन तीन सरुकृत शब्दों के भिन्न भिन्न श्रथ 'ये? ही? था! से मिलकर बना दे, भ्रत पुरानी कथाओं का सूचक है । पुराने से पुराना पुस्तक ऋग्वेद दे इस बात को सारे ससारने मानतिया हैं वेदों का श्र्थ सममभने के श्रनेक सावन द्वोते हुए भी वास्तविक बातों का पता नहीं लगता | कारण इसका यह है ऊ्रि कन्दमूल फल खाकर जीने वाले नि स्वार्थी ऋषि महर्षियों क इस सम्रह् की वह प्राचीन भाषा काल- क्रम से भ्रब इतनी कठिन हो गई दे कि उसका समम्कना साधारण बात नहीं । भारत के तथा भ्रन्य देशों के विद्वानों ने वर्षो परिश्रम करके इस विषय में पूर्ण प्रयत्न किया है ओर कर भी रहे है किन्तु भ्रव तक भी सचाई के तल तक पहुँच सके है कि नहीं, इसमें सन्देह ही है। वैदिक ( वेद से सम्बन्ध रखने वाले ) यज्ञ याग आ्रादि का प्राय लोप हो चुका है। भाज इन वेदों का श्रर्थ सममत्तेना भ्रोर तदुसार कर्म करना एक समस्या द्वोगई दै। किन्तु “जिन ढूंढा तिन पाइया” इस सिद्धान्त के अनुसार उच्चक्रोटि के बिद्वान्‌ लोग इस समय श्रधिक परिश्रम करने में लगे हुए दे भोर उनने कुछ पाया भी है । यों तो महाभारत के युद्ध के बाद वैदिक साहित्य की एक खण्डहर की सी हालत हो चुकी है। खम्भा कहीं पडा है ता छत का भझश कहीं है भ्र्थात्‌ क्या चीज ऊहा थी भौर शभ्रब कहा भ्रापडी इस बात को जानकर फिर स वेसी की वेसी इमारत बनाने के तुल्य ही इस समय वेदों के भ्र्थ की समस्या होगई है तिम पर--- “बिभेत्यव्प श्रता छेदो मामये प्रहरिष्यति ।' अर्थात्‌ वेद भगवान्‌ भ्रल्पज्ञान वाले लोगों से डरते है कि ये कहीं मुक्त पर प्रहार न करे । वर्तेमान काल मे ( विज्ञान युग में ) एक साधारण व्यक्ति भी अपने भाप को हरएक विषय का ज्ञाता समझता हैं ओर भ्रपनी २ सम्मति देने को तैयार द्वोजाता है परन्तु यह एक हँसी क याग्य




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