विराम चिन्ह | Viram Chinh

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Viram Chinh by अंचल - Anchal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'मांगे भी नहीं मिलते ४ क्ञ हो स्नेह के हो बढ़ भागे भी नहीं मिंकते पछे हैं! ख़प्न जेंसे रात के वीरान खाये हो पछे झरमान जेसे अब हमेशा को पराये हो छॉँघेरा इस कदर छावा कि भव्य के मेच छागे हो क्रिग्नी के से के हो ब्लढ़ मांगें भी महों मिछते | पूरा गीत होता है # मन का मीत मिलता हैं जकएड़ ले प्रारा प्रारो,से न बहु मनज्गीत मिलता हैं बिकक्ष हैं. बुढ् खाती क्री न_कोड़ सीए मिलता हैं हमें तो स्नेह के हो बोल मांगें भी नहीं मिछते घिरी झ्ाती चतहुढिक अधबुकी तृष्छा घुझे मम की सिसकती, थजठी, कुघचली गयी जो प्यास जीवन की बढ़ा को छा गर्ड हर सांस में प्रावाज बिघुड़न की हमें. तो स्नेह के दो बढ मांगें भी नहीं मिलते ।




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