प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद | Prachin Bharat Ke Kalatmak Vinod
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.86 MB
कुल पष्ठ :
197
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[९
3 #७ का» जाति यनयम्थन, अरकर्य अनजानसें न न
दाद्यनिक तत्ववाद हुआ करता है । कभी-कभी जाति उस तत््वकों अनजान
भी झा ् न» कभी दि ० ानयमनथणयाभामम ि डाल लय अनजासमें मल मद
रदीकार किए रहती हूँ और कभी-कभी जानदूज्कर । जो वात अनजान
म्ट दियोन खूपमें उ चलती स्डि सं परस्तें जािनों र
स्वाछत हुइ हू व सामाजिक रूढ़्याक रूपन चलता रहता हू. परन्तू जातक
ऐतिहासक परन्पराक अव्ययनसे स्पप्ट ही पता चलता हैं कि वह कि्सि कारण
आपातत: डा
प्रचलित हुआ था । इस कार अ्यस और तुताय पहलू झापातत: दिरुद्ध दिखने-
के जातिकी चिद्यापर आश्रित होते हैं। दसरा पहल इन
पर भी जातिकी चुचिन्तित तत््व-विद्यापर आश्रित होते हू । दूसरा पहलू इन
क्ल्पनाका सूद हाथ होता दू। परन्त वह चूँकि हुदयस साथ निकला हुन्ना हाता
न सलिए समझानेमें ८2 घक सहायक ्स्
इसलिए वह उस जातिकी उस दिशेप प्रवृत्तिकों समझानेमें अधिक सहायक
1 हूँ जिसका आश्रय पाकर वहू झानन्दोपभोग करती हूँ 1! इस पुस्तकमें इसी
विद्येष प्रवृत्तिकों सामने रखनेका प्रयत्न किया गया हूं ।
सन्न्विदानन्दस्वसूप महाशिवकी आ्रादि सिसूक्ा ही दक्तिके रूपमें
सान है । प्रलयकालमें सहाशिव निप्क्त्यि रे तब समस्त जगत्मपब्ीन्चकों दि
सात है । प्रलयकालम जब सहााझव क्रय रहते हैं तव समस्त जगत्म्रप्न्चक
5. चिराजती रहती थ्प्प्म शिवकों लीलाके 5८ प्रयोजनकी 5
आत्मसाद करके महामाया विराजती रहती है । जब शिवको लीलाके प्रयोजनर्क
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झनुभूति होती हैं तो फिर यही महाशक्तिरुपा महामाया जगतूको प्रपंघित्त करती
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है । शिवकी लीलाससी होनेके कारण ही उन्हें ललिता कहते है । यह लोक-रचना
उनकी कीड़ा है-इसमें उन्हें ्नानत्द आता हैं; चिस्मय शिव उनके प्रिय सखा हैँ-
क्रीड़ाविनोदके साथी हूँ; सदानन्द उनका ्ाहार ह-आसत्द हा उनका एकमानन
भोग्य है; भौर सद्धक्तोंका पवित्र हृदय हो उनका वास भूमि हे । “ललिता
स्तवराजनमें कहा हैं :
कीड़ा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः: दिवः
आहारस्ते सदानन्दों वासस्ते हृदय सताम् ॥।
ललिता सहल्नाममें इन्हें 'चित्कला,' श्ानन्दकलिका', प्रेमरुपा',
'प्रियंकरी', 'कलानिधि', 'काव्यकला,' “रसज्ञां; “रसचेवधि' कहकर स्तुति
की गई है । जहाँ कहीं -मनुप्य-चित्तमें सौन्द्यंके प्रति श्नाकपंण है, सौन्दर्य-रचनाकी
प्रवृत्ति है, सौत्दयेंके झास्वादनका रस है-वहाँ महामायाका यही रूप वर्तमान
रहता हैँ, इसलिए सौन्दयेके प्रति आकपेणसे मनुप्यके चित्तमें परमशिवकी श्रादि-
कीड़ेप्सा ही मूत्तिमान हो उठती है, वह प्रकारान्तरसे महाशक्तिके ललिता-रुपकी
ही पूजा करता है । ललिता, कला भर आनत्दकी निधि हैँ, वे ही समस्त प्रेरणा-
ओके रूपमें विराजती है ।
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