चादायन | Chadayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताबेत्ा 'चादायन' की फारसी-अरबी मे लिखी हुई कॉलपेस-मरस्ितप्रतिओ>मे विखरे हुए 5० कडवको को नागरी मे लिपिबद्ध कर प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास अब से सात-आउठ वर्ष पूर्व इन पक्तियों के लेखक ने किया था । इसके अनतर क० मु० हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ के तत्कालीन निदेशक डाँ० विश्वनाथ प्रसाद ने फारसी में लिपिबद्ध भोपाल की एक प्रति के कडव॒को को, जो प्रिंस आँव वेल्स म्यूजियम बंबई मे थी, नागरी मे लिपिवद्ध किया था । ये दोनो प्रयास एक ही जिल्द में उक्त विद्यापीठ द्वारा १६६२ में 'चदायन' नाम से प्रकाशित हुए थे। तीन वर्षो के लगभग हुए डॉ० परमेश्वरी लाल गुप्त ने जांन राइलेंग्डस लाइब्रेरी, मैनचेस्टर की एक प्राचीन प्रति, तथा अन्य कुछ नवीन सपादन-सामग्री के साथ उक्त प्रतियो का भी उपयोग करते हुए, जो मेरे और डॉ० विश्वनाथ प्रसाद द्वारा प्रस्तुत किए हुए पाठो मे प्रयुक्त हो चुकी थी, चिदायन” नाम से रचना का एक पूर्णतर पाठ प्रस्तुत किया । इन प्रयासों ने हिंदी सूफी प्रेमारख्यान परपरा की प्रथम रचना के सबंध में जहाँ विचारणीय सामग्री प्रस्तुत की, वहाँ रचना के एक ऐसे आलोचनात्मक सस्करण के अभाव की ओर भी निर्देश किया जिसको रचना और उसकी परपरा के अध्ययन के लिए एक अधिक निश्चयपूर्ण आधार वनाया जा सकता | प्रस्तुत प्रयास इसी लक्ष्य को सामने रखते हुए किया गया है । ऊपर उल्लिखित प्रतियो के अतिरिक्त और उन सब की अपेक्षा पूर्णतर रचना की एक प्रति जयपुर के एक साहित्य-सेवी श्री रावत सारस्वत के पास थी और यह प्रति नागरी मे थी, जबकि शेप समस्त प्रतियाँ फारसी-अरबी लिपियो मे थी। लगभग छ मास हुए इसी पाठ-शोध के प्रसंग में मैने श्री सारस्वत को रचना के एक कडवक का पाठ अपनी प्रति से भेजने को लिखा, तो उन्होने न केवल उसका पाठ मुझे भेजा, बल्कि मेरी पाठ-शोध-निष्ठा को देखकर उन्होने लिखा कि यदि मै रचना का आलोचनात्मक पाठ-सपादन करने को प्रस्तुत हूँ तो वे उक्त प्रति को दे सकते थे और तदनतर उन्होने उक्त प्रति विद्यापीठ को दे भी दी । इस अतिम प्रति के उपयोग के लिए मैं आगरा विश्वविद्यालय के विद्यानुरागी कुलपति, जिसका उक्त विद्यापीठ एक अभिन्न अग है, डॉ० श्री रज्जन जी




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