स्याद्वादमन्जरी | Syadvadamanjari

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Syadvadamanjari by जगदीशचन्द्र जैनेन - Jagdishchandra Jainen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टीकाकार मल्छिपेण 28 स्यान्नाध्तिअवक्तव्य, और स्थादस्तिनास्तिअवक्तव्यके भेदरे सकृलादेश ओर विकलादेश प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तमंगीके सात सात भेदोंमें विभक्त है । (४ ) स्थाहादियोंके मतमें स्व द्रव्य, क्षेत्र, काछ और भावकी अपेद्ा वस्तु अध्तित्व भौर पर द्रव्य, क्षेत्र, काल गौर भावड्ी अपेशञा नास्तित्व है। जिस अपेच्षासे वस्तु अस्तित्व है, उसी बपेक्षासे बस्तुमें नाह्तित्व नही है। अतएवं सप्तभंगी नयमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्या, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक दोप नहों भा सकते 1 (५ ) द्रव्याधिक् नयक्री अपेक्षा वस्तु नित्य, सामाग्य, अवाच्य, और सत्‌ है, तथा पर्यावायिक नयकी अपेक्षा मनित्य, विशेष, बराच्य और अतत्‌ है। अतएव नित्यानित्यवाद, सामान्यविशेषयाद, अमिलाष्यानभि- लाप्यवाद तथा सदसद्वाद इन चारों वादोंका स्माद्ादर्में समावेश हो जाता हैं। (६) नयहय समस्त एकांतवादोंका समन्वय करनेवाला स्याद्ादका सिद्धांत हो सर्वम्रान्य हा सकता है। (७ ) भावाभाव, ईदाईत, नित्पानित्य आदि एकांतवादोंमें सुख-दुख, पुण्य-पाप, वस्ध-मोद्ष आदिको व्यवस्था मही बनती । (८ ) बस्तुक्के अनन्त धर्मोमरेंसे एक समयमें किसी एक धर्मकी अपेक्षा छेकर वस्तुके ग्रतिपादन करने- को मय कहते हैं। इसलिये जितने तरहके बचत होते है, उत्तनें ही नय हो धकते है । नये एकसे लेकर संख्यात मेंद तक हो सकते है । सामान्‍्यसे नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋणजुसूम, शब्द, समभिष्ठढ़ मोर एबंभूत ये सात मेंद किये जाते है। न्‍्याय-बैशेषिक केवल नैगमनयके, अद्वेत॒वादी और साझुष वे वल् संग्रहनयक्रे, चार्वाक केबल व्यवहारनयके, बौद्ध केवल ऋणजुसूम्नयके, और वेयाकरण केवल शब्दनयके माननेवाफ़े है । प्रमाण सम्पूर्ण चगरूप होता है । सयवाकयोंमें स्थात्‌ शब्द लगाकर बोलनेको प्रमाण कहते हैं । अत्यक्ष और प्ररोक्षके भेदसे प्रमाणके दो मेंद होते हैँ । (९ ) जितने जीव व्यवह्राशिसे मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अवादि तिगोदफी अम्यवहार- राशिसे निकलकर व्यवहारराशिप्रें आ जाते हैं, ओर यह अव्यवद्वाररशि आदिरहित हैं, इसलिये जीवोके सतत मोदा णाते रहनेपर भी संसार जीवोंदे कभी खाली नहीं हो सकता । ( १० ) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जोवत्वकी सिद्धि | (११ ) प्रत्येक दर्शन नयवादमें गर्भिव होता है। जिम्न समय नयहूप दर्शन परस्पर निसपेक्ष भावते बस्तुका प्रतिपादन करते हैं, उ्त छम्य ये दर्शन परतमय कहे जाते हैं। जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियां एक समुद्र मे जाकर मिलती है, उप्ती तरह अनेकांत दर्शनमें सम्पूर्ण ज़ैनेतर दर्शनोंका समन्वय होता है, इसडिये पैमदर्शन स्वसमय है ! इलोक ३०-३२ यहाँ महावीर भगवानकी रतुविका उपसंहार करते हुए जनेडांतवादसे हो जगतका उद्घार होनेकी शवपतावा प्रतिपादन किया गया हैं ।




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