दिग्देशकालस्वरुपमिमासा खंड ४ | Digdeshkalsvrupmeemansa Khand-4

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Book Image : दिग्देशकालस्वरुपमिमासा खंड ४ - Digdeshkalsvrupmeemansa Khand-4

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तादना गणित बिया, धिम इत्यमृता शत्पमामनैकसारा, घणमायामुबन्धिनी, शिग्रेशकालास्मिता दुसपरम्परा से हतक मी तो इस मारतीय-एिल्दू-मानव का परित्राण नही होमता है। -ब्रिसदसवर्पावधि में सम्मुदभूत-भाविश त नवग्रद-प्राद्ात्मक एत्द शीय नब्विध उद्‌- बोघक-विजेषक मद्गामागों का नाम-सम्मरण-- अपरशय दी बिगत-भुक्त-प्रक्ान्ता-विस॒हस्तयपात्मिका अपपि में हम मानय को “उदयोधन' प्रटान जे वाली अनेद मिशिष्ट मारतीय प्रशाएँ, माग्ठराष्र में पथाममय झमिन्यक् मी इ्ती रहीं जिन अ्रमिम्पक्तियों | मए 'सताठिद्ध/ मानव ( १ )-सष्टिव्यव्िमशापरायण-सत्त्यमीमासऊ-दारानिक यिवेचफ, -(२)- म्मतत्त्यपिमशपरायण-धम्ममीमांसफ--स्मास यिवेषफ' ,-( है )--पिघि-निपेघ- पिमशपरायण- म्माभिनिषिष्ट-'नियाघिक पिबेचक, -(०)-भदिशत्त्यविमशपरायस-महिनिषिण्ट-साम्प्रदायिफ- बवेचऊ, -(६)-शास्प् पठन-पाठन-पिमशपरायण-शास्ममछ--॑पिद्व द्विमेचछ', (६)-सर्मेश्रिमशपरा- ण-सबवादी-'-उपदेशऊ-मद्दामहदोपदेराकयिवफ ,-( ७-सवपिमराशुन्य-बिसंवादी-फल्याप-- प्रविवेषऊ',-(८]-शोकशिछ्तण पडु-मीविउुशक्ष-प्रतीच्यपयोष्छिएमोगी-“नीदिपियेचक (नेतार') (,६ )-सबशिए्ठण पढु-मस्यादायुराख-नैविकयज्तसमथक-समाजसुघारक इन मुप्रस्द नत्नप्रह- ादत्मफ उद्बोषडों विवेचरद्रौ-के 'भातिमिद्ध स्थरूर्पों को साक्यात्‌, झपवा सो कर्णांकार्टिपरम्परया आन प्रौर प्टियान रद्दा ऐ। &-परदर्शनमूला दिगृदेशकाल्निवन्धना प्रत्यक्प्रमावात्मिका 'मायुकता! से उत्पीड़ित प्रिसदस्तवपात्मक मारपीय माबुक-इिल्दू-सानव-- ठपादिष नयप्रहप्राएँ के सन्‍्तति-परभ्परार्ूप असंस्य-सस्यात उन पिमिन्न मतवार्शों के तन्तुबिताना- मऊ इन्द्रवाल से याशान्वित घन जाने बाला यह मास्त्रीय ल्वूमानव सचमुच उस सीमा पर्स्यन्त दिगूदेश- ध्पशबिमूल ही बनता बा आरदा है विगत तीन सइस यर्पो स मिस सीमास्मक वारण-पाश से भाबद्धा सुयदा हो छाने बातो मानवप्रशा के स्पस्वरूपनोधानुगस समी नैप्टिक द्वार सर्वास्मना शौदकपाटाइद्ध दौ प्रमाणित हो- छाया करते हैं। डिस प्रशापणाधात्मक, टिगूदेशकालात्मक मद्दान्‌ दोप से मानव डी स्वदर्शननिधा का पारम्परिक स्रोत अवरुद्ध दीख्वाया करता है, मिस भबरोघ से द्वी मानगप्शा प्रत्यक्ष से प्रमाबित होती हुई दिग्देशष्परशबिमूद झपेया दिगू-देश-काक्-आन्ता दी बन थाया करती है बिस दैशिक-कालिक-ग्रान्दि से ही जो मानबप्रशा मटिति गन्घर्वेनगरशेखाबत्‌ स्वस्वरूस-विम्रग्भा घन जाया करती हे, तद्ज्नान्ति के मूल रूप्ट-बविघाता उसौ मद्दान्‌ दोष का नाम है--“भासुरता' । एकमात्र इसी मह्ठामहीयान्‌ दोध ( माजुक्ता ) से सप्रिष्ठ मी मार- दौब हिन्दुमानव दिग्देशकाशाजुभन्धी मातिसिद्ध-दात्वालिक-मत्यक्य-प्रमाषा से प्रमाबित शेता हुआ विगत हीन सइस बर्षों से श्पने नै किक स्वरूप-बोष से उत्तरोसर अमिमृत ही होता चला शारदा है । १०-सच्तातन्त्सापेषतामूलक दिगूदेशकालन्यामोदन से ष्याप्ुग्थ मारतीय मानव का सांस्कृतिक-निष्ठाभों से पारम्परिक पतन -- प्रत्यच्प्रमाबमूक्षा सर्बनाशब्यरिणी “मायुकता' ने सर्वप्रथम इस मुर-भारतीम मानव को टस 'सच्तछस्त्र' के प्रति ही सर्बास्मना प्रणावमाब से समर्पित कर ही तो टिया मिस सचाठन्त्र' ( शास्नहन््र ) छ




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