मुद्राराक्षसम | Mudrarakshasam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
558
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पद्मम अड्डू इस नाटक की गर्मसन्धि है । मुद्रित लेख और आभूषण पेटिका के साथ सिडधार्थक
पकडा जाता है। मठ्यकेतु को यह विश्वास हो जाता है कि राक्षस गुप्तरूप से चन्द्रय॒ुप्त के साथ
मिला है । इसका विरोध केवल चाणस्य से हैं। इसी क्रोध में बह अपने सहयोगी राजाओं बी
हत्या करवा देता है। इसके कुफल्ल्वरूप वह दन्दा बना लिया जाठा हूँ। इस अड्ड में चाणक्य
का कूटनीति फ्लीभृत होती दिखाई गयी हे ।
बष्ठ अऔड में राक्स अपने मित्र चन्दनदास को टोह में पाटलिपुत्र पहुच जाता है। यहाँ
उत्ते चन्दनदास के प्राण सकट का सूचना एक ब्यक्ति से मिलती है
सप्तम जड्ू में चाण्डाछ चन्दनदास दो फासी देने के लिए वधस्थान छे जादा है। चन्दनदास
कौ पत्ना के आत्तंविलाप पर उसकी सहायता के लि रास स्वय॒ उपस्थित हो जाता दै। यही
वह चन्द्रयुप्त का मन्तित्व स्वीकार करता है। इस अन्तिम अड्ढू में नाटककार ने वडो कुशलता से
कार्यान्विति का निर्वाह किया हैं ।
मुद्राराक्षस परम्परित दृष्टिकोण
महाकवि विद्याखदत्त की अमर झति 'मुद्राराइस? सस्छत साहित्य में अपने ठग का अकेला
नाटक है । इतिहास एव राजनीति का सुन्दर समन्वय इसकी मौलिक विश्वपता ई। इसमें एक
ओर नन्दवश के विनाश का काली छ/या द तो दूसरी ओर चन्द्रयुप्त के राज्यारोदण का चाँदनी |
कहीं राक्षस के सक्रिय विरोध के बादल दें तो कहां कोटिल्य की कुटिक नोति की सजगता
सदश्य हे। अन्त में राष्म द्वारा चन्द्रयुप्त के प्रमुख को स्वीकृति दे । इस नाठक में सबंत्र साहित्य
और राजनौति के विविध दत्ततों का मणिकाचन योग मिलता है। इसका कारण सभवत- विश्वाख-
दत्त का जन्म राजकुल में होना है। उद्राराक्षत का कुछ प्रतियों के अनुसार वे महराज भास्कर-
दत्त के पुत्र थ और कुछ के अनुसार सामन्त वटेशरदतत के परौन्न एव महाराज पृथु के पुत्र थे ।
इस लाटक के रचनाकार के विषय में भी विद्ञानों में तोड़ मतभेद है। अधिकाश पिद्ान्
इस्ते चौथी पाँचवी शर्तों को रचना मानत हें, किन्तु, कुछ विद्वानों ने इसे सातवीं आठवीं शो की
कृति मृ।ना दे। सस्कृत साहिष्य के प्रायः सभी इतिहवासों में इसका विवेचन सप्रमाण उपस्थित
करने की चेष्ट को गयो है।
नामझरण--दाइंनिक दृष्टि से नामों में सार्थक्ता का अभाव खटकता है, किन्तु, साहित्यिक
दृष्टि नामों में सार्थकवरा मानती दै। इस नामोवित्य के सम्बन्ध में 'ओचित्यविचार चर्चा! में
लिखा दै--'नाम्ना कार्यानुरूपेण शायते गुणदोषयों ' देसी दशा में किसी वस्तु के प्रकृत अर्थ के
अनुरूप नाम चुनने में कि की कटा रक्षित होती दै३ प्रस्तुत अर्थ के अनुकूछ नाम के मुनते दी
सह्ृदर्थों के ददय विकसित हो जाते हें । इसी अन्दर्यद्घता को दृष्टि से विशधाखदत्त ने 'मुद्राराक्षत
आब्द को अर्थ-गौरव के रूप में प्रदण किया दे । यइ शब्द मूल पुस्तक की आत्मा दो समावनाओं
को व्यक्त करता दै। सभवतः इस तहर के नाम चुनने में कवि वो कालिदाम के 'अभिष्ठान-
चाकुन्तल' ते भी प्रेरणा मिली दो । अस्तु--मुद्रया परिगृद्दीतः राश्सोज्ञ” यहाँ मध्यमपदल्ोपी
बहुब्रीदि समास है, पुनः 'ठदबिकृत्यक्षतों ग्रन्थ इति मुद्राराष्ठसम् । यहाँ 'अधिदृत्यक्षत गरन्येः इस
सूत्र से अगन्तत्वाद नपुसझ/िज्व का विधान किया गया है। अठः 'मुद्राराक्षसम? नाम को सूपबुक्तता
स्पष्ट है। समम थय में नाम को अन्वर्षक क्षमता ब्याप्त दै+ इस नामकरण की अजारभूत घटना
यह ह कि अपनी ही मुद्रा को अपने विरुद्ध प्रदक्त होते हुए देखकर राश्षस विवश्य हो जाता है।
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