पद्मा पुराण | Padma Puran

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Padmaourana Vol.ii by पंडित पन्नलाल जैन - Pandit Pannalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घड़विद्यतितमं पर्व ११ नकते शक्त्या स्थितेनासाबुद्याने नससः पतन्‌ । विद्यास्वतेन्दुगतिना ददुशे सुसभाजनमर्‌ ॥१३०॥ उछुपात किसेय स्थाद विद्युत्खण्डोड्यवा च्युत. । वितक्यति समुत्पत्य ददुशे एथुक शुमस्‌ ॥1३१॥ सृहीत्वा च प्रमोर्रेन देव्या. पु्पवतीभ्रुतेः । वरशय्याप्रसुप्ताया जद्भादेशें चकार सः ॥१३२॥ ऊचे चतां हुतस्वान उत्तिष्ठोत्तिष्ठ सुन्दरि । कि शेपे बालक पश्य संप्रसूतासि शोमनम ॥१३३॥ तत, कान्तकरस्पश्नंसारयसंपत्मरवोधिता । शब्यात- सहसोत्तसथी सा विधूर्णितलोचना ॥१३४॥ अर्मफ च॒ दर्दर्शातिसुन्दरं सुन्दरानना । तस्यास्तदंश्ुजालेन निद्राशपो निराकृत' ॥११७॥ परं च विस्मय प्राप्ता पप्रच्छ प्रियदर्शना । कयाय॑ जनितो नाथ पुण्यवत्या ख्िया शिक्ष ॥१३६॥ सो&बोचदयिते जातस्तवाय प्रवर खुतः । प्रवीहि संशर्य मा गास्त्वत्तो धनन्‍्या परा छु का ॥1३७॥ सावोचणिय वन्ध्यास्मि कुतों से सुतसभवः । प्रतारितास्मि देंचेन कि में 'भूय- प्रतायते ॥१३८॥ सोथ्वोचदतरि भा शब्का कार्पीः कर्मनियोगतः । प्रच्उन्नो5पि हि नारीणा जायते गर्संसमव, ॥१३५९॥ सावोचदस्तु नामैवं कुण्डले व्वतिचारुणी । ईंदृशी मर्त्योके3स्मिन्‌ सुरत्ले मवत' कुत, 1१४०॥ सोध्योचदरठेवि नानेन विचारेण प्रयोजनम्‌ । रूणु तथ्य पतन्नेप गगनादाहृतो मया ॥३४१॥ “भयानुमोदितस्तेड्यं सुत सुकुलसंमवः । लक्षणानि घदन्त्यस्य महापुरुषभूमिकम्‌ ॥१४श।॥ श्रम॑ कृत्वापि भूयांस भारसूदवा च गर्मजम 1 फंछ तमयलामोथन्र तत्ते जात सुख प्रिये ॥1४३॥ तदनन्तर चन्द्रगति विद्याधर रात्रिके समय॑ अपने उद्यानमे स्थित था सो उसने आकाशसे पड़ते हुए सुखके पात्रस्वलूप उस बालकको देखा ॥१३०॥ क्या यह नक्षत्रपात हो रहा है? अथवा कोई बिजल्‍ीका टुकडा नीचे गिर रहा है ऐसा सशय कर वह चन्द्रगति विद्याधर ज्योही आकाशझमे उड़ा त्योही उसने उस शुभ वालकको देखा ॥१३१॥ देखते ही उसमे बडे हपँसे उस बालकको वीचमे ही ले लिया और उत्तम शय्यापर शयन करनेवाली पुष्पवती रानीकी जाँघोके वीचमे रख दिया ॥१३२॥ यही नही, ऊँची आवाजसे वह रानीसे बोला भी कि हे सुन्दरि | उठो, क्यों सो रही हो ? देखों तुमने सुन्दर बालक उत्पन्न किया है ॥१३३॥ तदनन्तर पतिके हस्त- स्पर्णसे उत्पन्त सुखरूपी सम्पत्तिसे जागृत हो रानी शय्यासे सहसा उठ खडी हुई और इधर-उधर नेत्र चलाने लगी ॥१३४॥ ज्योही उस सुन्दरमुखीने अत्यन्त सुन्दर वालक देखा, त्योही उसकी किरणोके समूहसे उसकी अवशिष्ट निद्रा दूर हो गयी ॥१३५॥ उस सुन्दरीने परम आइच्यँको प्राप्त होकर पूछा कि यह बालक किस पुण्यवती ख्लीने उत्पन्न किया है ? ॥१३६॥ इसके उत्तरमे चन्द्रगतिने कहा कि हैं प्रिये। यह तुम्हारे ही पुत्र उत्पन्त हुआ है। विश्वास रखो, सशय मत करो, तुमसे वढकर और दूसरी घन्य श्री कौन हो सकती है? ॥१३७॥ उसने कहा कि हे प्रिय ! मै तो वन्ध्या हूँ, मेरे पुत्र केसे हो सकता है ? मे देवके द्वारा ही प्रतारित हँ--ठगी गयी हूँ अब आप ओर क्यो प्रतारित कर रहे हैं? ॥१३८॥ उसने कहा कि है देवि ! शका मत करो, क्योकि कदाचितु कर्मयोगसे ख्रियोके प्रच्छनन गर्भ भी तो होता है ॥१३०॥ रानीने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही पर यह बताओ कि इसके कुण्डल लोकोत्तर क्यो है? मनुष्य छोकमे ऐसे उत्तम रत्न कहांसे आये ? ॥१४०॥ इसके उत्तरमे चन्द्रगतिने कहा कि हें देवि! इस विचारसे क्‍या प्रयोजन है ? जो सत्य बात है सो सुनो ) यह बालक आकाइसे नीचे गिर रहा था सो वीचमे ही मैने प्राप्त किया है ॥१४१॥ मैं जिसकी अनुमोदता कर रहा हूँ ऐसा यह तुम्हारा पुत्र उच्चकुलमे उत्पन्त हुआ है क्योकि इसके लक्षण इसे महापुरुषसे उत्पन्न सुचित करते है ॥१४२॥ बहुत भारी श्रम कर तथा गर्भका १. प्रभुप्ताया म । २. चैता क मं. । हे हुत॑स्वोन मं, । ४, शोभिनम्‌ म. । ५६ भूप म । ६ त्वति- चारिणी म । ७, मया तु मोदित मं, 1




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