लेन-देन | Lane Dan
लेखक :
पण्डित हरिदास शास्त्री - Pandit Haridas Shastri,
श्री शरचन्द्र चटोपाध्याय - Sri Sharchandra Chatopadhyay
श्री शरचन्द्र चटोपाध्याय - Sri Sharchandra Chatopadhyay
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
380
श्रेणी :
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पण्डित हरिदास शास्त्री - Pandit Haridas Shastri
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श्री शरचन्द्र चटोपाध्याय - Sri Sharchandra Chatopadhyay
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्र लेन-देन *
पोडशी ने वैसे ही धीरे-धीरे उत्तर दिया--आपसे ते
पहले ही कह दिया ऊ़ि मेरे पास रुपया नहों है।
इस शचह्डित मदु स्वर में भी जो सत्य की दृढता थी बह
जमींदार फे कानें में सटकी । उसने इस घात पर और तक
नहीं किया, कद्दा--अच्छा, ते। और दस आदसी जैसा कर
रहे हैं, वह्दी करो । जिन लोगें के पास रुपया है उनके यहाँ
जमीन जायदाद रेहन रखकर दे। या बेंचकर दे। ।
पोडशों बेली--बे ऐसा कर सकते हैं क्योंकि जमीन
उनकी है। परन्तु देरता की सम्पत्ति रेहम रखने या बेंचने का
ते सुभे अ्रधिकार नहीं है ।
जीवानन्द ने तनिक चुप रहकर एकाएक हँसकर फद्दा--,
लेने का ही कया सुझ्के अधिकार दे ? एक कौडो भी नहीं । |
ते भी लेता हूँ, क्योंकि मुझे जरूरत है। ससार मे यह !
“जरूरत” ही अ्रसली अधिकार है। तुम्हें भी जब देने की ;
जरूरत है, तम्--सममकत गई ?
पोडशों चुपचाप स्डी रही । जीवानन्द कहने ज्गा--
भाल्नूम छोता दै कि तुम कुछ पडी लिखी द्वे।, भ्रगर ऐसा दे ते
ज़मींदार के रुपये की वसूली में श्र छुब्जत न करना । दे देना।
पोडशों रथ थोडा साहस पाकर, झरुँह उठाकर, बेली--
क्या उसे आप जमीदार का प्राप्य कहते हैं ?
जीवानन्द ने फद्दा--नहीं, मैं प्राप्य नहीं कहता हूँ, बढ़
तुम्द्दारा देय है यही कहता हूँ! तुम कट्दागी, पर 'मौर
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