लेन-देन | Lane Dan

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Lane Dan by पण्डित हरिदास शास्त्री - Pandit Haridas Shastriश्री शरचन्द्र चटोपाध्याय - Sri Sharchandra Chatopadhyay

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पण्डित हरिदास शास्त्री - Pandit Haridas Shastri

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श्री शरचन्द्र चटोपाध्याय - Sri Sharchandra Chatopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र लेन-देन * पोडशी ने वैसे ही धीरे-धीरे उत्तर दिया--आपसे ते पहले ही कह दिया ऊ़ि मेरे पास रुपया नहों है। इस शचह्डित मदु स्वर में भी जो सत्य की दृढता थी बह जमींदार फे कानें में सटकी । उसने इस घात पर और तक नहीं किया, कद्दा--अच्छा, ते। और दस आदसी जैसा कर रहे हैं, वह्दी करो । जिन लोगें के पास रुपया है उनके यहाँ जमीन जायदाद रेहन रखकर दे। या बेंचकर दे। । पोडशों बेली--बे ऐसा कर सकते हैं क्‍योंकि जमीन उनकी है। परन्तु देरता की सम्पत्ति रेहम रखने या बेंचने का ते सुभे अ्रधिकार नहीं है । जीवानन्द ने तनिक चुप रहकर एकाएक हँसकर फद्दा--, लेने का ही कया सुझ्के अधिकार दे ? एक कौडो भी नहीं । | ते भी लेता हूँ, क्योंकि मुझे जरूरत है। ससार मे यह ! “जरूरत” ही अ्रसली अधिकार है। तुम्हें भी जब देने की ; जरूरत है, तम्--सममकत गई ? पोडशों चुपचाप स्डी रही । जीवानन्द कहने ज्गा-- भाल्नूम छोता दै कि तुम कुछ पडी लिखी द्वे।, भ्रगर ऐसा दे ते ज़मींदार के रुपये की वसूली में श्र छुब्जत न करना । दे देना। पोडशों रथ थोडा साहस पाकर, झरुँह उठाकर, बेली-- क्या उसे आप जमीदार का प्राप्य कहते हैं ? जीवानन्द ने फद्दा--नहीं, मैं प्राप्य नहीं कहता हूँ, बढ़ तुम्द्दारा देय है यही कहता हूँ! तुम कट्दागी, पर 'मौर




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