श्री मदभगवद गीता | Shri Madbhagawat Geeta

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Shri Madbhagawat Geeta by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# भम्र नियेदन # च्न्न्स्स्य््च्य्ल्य्य्स्य्य््य्च्स्य्च्य्स्य्स्च्च्सच्चच्स्क्च्क्य्लकल्ल्स्य्स्स्स्लस्स्ल्जजेलस्सत्तडटजजडल रे विशद वर्णन है । उपर्युक्त वर्णनसे यह बात स्पष्ट द्वो जाती है कि वेदोंकों मगबानने बहुत अधिक आदर दिया है। इसपर यद्ष शह्ढला होती है कि फिर मफानने.कई स्पलोमें वेदोंकी निन्‍्दा क्यों की है |उदाहरणतः उन्होंने सकाम पुरुषोंकीं वेदबादमें रत एवं अविविकी बतद्या है (२1४१२) तथा वेदोंको तीनों गुणोके कार्यहूप सांसारिक भोगों एवं उनके साधनोंका अ्रतिपादन करनेबाले कहकर णर्जुनकों उन भोगोंमें आसक्तिरद्ित होनेके लिये कद्दा है (२) ४५) और वेदत्रयीधर्मका आश्रय लेनेवाले सकाम पुरुषकि सम्बन्ध भगवानने यह कहा है कि वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं, आवागमनके चक्रररे नहीं छूटते | (९। २१ )। ऐसी झ्थितिमें क्या माना जाय ?? इस शद्गाका उत्तर यह है कि उपर्युक्त वचनेमें यथपि वेदोंकी निन्‍्दा प्रतीत होती है, परन्तु वास्तवमें उनमें वेदोंकी निन्‍्दा नहीं है। गीतामें तकामभावकी अपेक्षा निष्काममात- को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है और मगवानकी प्राप्ति: के लिये उसे आवश्यक बतलाया है | इसीसे उसकी कपेक्षा सकामभावको नीचा और नाशवान्‌ विपय-छुखके देनेवाला बतढानेके लिये द्वी उसकी जगह-जगह तुच्छ सिद्ध किया है, निषिद्ध कर्मोकी भाँति उपकी निन्‍दा नहीं की है। जदाँ वेदोंके फडको झाँध जानेकी बात कही गयी है, वहाँ भी सकाम कर्मको लक्ष्य करके ही वैसा कहा गया है (८1 २८)। उपर्युक्त विवेचनसे यह बात स्पष्ट दो जाती है. कि भगवानने गीतामें वेदोंकी निन्‍्दा कहीं भी नहीं की है, - बल्कि जगह-जगह वेदोंकी प्रशंता ही की है| गीता और सांख्यदशन तथा योगदर्शन कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि गीतामें जहाँ-नहाँ 'सांख्य! शब्दका प्रयोग हुआ है, वहाँ वह मद्दर्षि कपिलके द्वारा अरवर्तित सांड्यदर्शनका वाचक है; परन्तु यह्द वात युक्तिसड्रत नहीं माद्धम द्वोती | गीताके तेरहयें भष्यायमें लगातार तीन इजेकों (१९, २० और २१ ) में तथा अत्यत्र भी 'अकृतिर और “पुरुष! दोनों शब्दोंका साथ-साथ प्रयोग हुआ हैं और अक्षति-पुरुष सांख्यदर्शनके खास शब्द हैं; इससे लोगोंने अनुमान कर लिया कि गीताकी कापिल सांख्यका सिद्धान्त मान्य है। इसी पकार प्योग' शब्दको भी कुछ लोग पातक्षछ- योगका वाचक मानते हैं। पाँचवें अध्यायके प्रारम्भ तथा अन्यत्र भी कई जगह 'सांख्य और योग शब्दोंका एक ही जाह प्रयोग हुआ हैं; इससे भी छोगगोने यह मान लिया कि पसांस्यः और “योग! शब्द ऋमश: कापिल सांझ्य तया पातञ्छ योगके वाचक हैं; परन्तु यह बात युक्तिसड्त नहीं माद्म होती। नतो गीताका 'सांख्य' कापिल सांख्य ह्वी है और न गीताका ्योग” पातझनल योग ही है| नीचे लिखी वार्तेसि यद्द स्पष्ट हो जाता है | (१ ) गीतामें ईधरकोीं जित रूप माना है, उस कूपमें सांख्यदर्शन नहीं मानता | (२)यबवि प्रकृति! झब्दका गीतामें कई जगह प्रयोग - आया है, परन्तु गीताकी कृति! और साख्यकी अ्रक्षति'में महानअन्तर है | कापिछ सांख्यकी प्रकृति तीनों गुर्णोकी सम्यावस्था है; किन्तु गीताकी प्रकृति तीनों गरर्णोकी कारण है, गुण उसके कार्य हैं (१४।५) । सांख्यमे प्रकृतिको अनादि एवं नित्य माना है; गीताने भी प्रकरतिको अनादि तो माना दै (१३ | १९), परन्तु नित्य नहीं | (३ ) गीताके 'पुरुष! और सांज्यके 'पुरुष' में भी मद्दान्‌ अन्तर है | कापिल सांख्यके मतमें पुरुष नाना हैं; किन्तु गीताका सांख्य पुरुषको एक ही मानता है ( १३1 २२, २०० १८1२०) । (9) गीताकी मुक्ति! और सांख्यकी -'मुक्ति! में भी मद्दान्‌ अन्तर है | सांझयके मतमें दुःखोंकी आत्यन्तिक निदृत्ति ही मुक्तिका खरूप है; गीताकी 'मुक्तिःमें दु:खोंको भत्यन्तिक निशृत्ति तो हैं ही किम्तु साप-ही-साथ परमानन्द- खरूप परमाध्माकी ग्रात्ति भी है (६। २१-२२)। (५ ) उवर्युक्त सिद्वान्तमेदके छिंद्रा पातक्लल योगमें योगका अर्थ है---५चित्तवृत्तिका निरोध ।! परन्तु गीतामें प्रकरणानुसतार 'योग! शब्दका विमिन्र अरे प्रयोग हुआ है ( देखिये अ० २। ५३ कीर्ठीका )। इस प्रकार गीता और सांख्यदर्शन तथा योगदर्शनके सिद्वान्तेमिं बड़ा अन्तर है 1




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