श्री राम उचाव दो यतना की महिमा | Shree Ram Uchav do Yatna Ki Mahima

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Shree Ram Uchav do Yatna Ki Mahima by आचार्य श्री रामलाल जी - Achary Shri Ramlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अविद्या के नाश से प्रभु की प्राप्ति पद्मप्रभ जिन तुज मुज आतरु रे, किम भाजे भगवत? कर्म विपाके कारण जोईने रे, कोउ कहे मतिमत।। जावत5विज्जा पुरिसा, सब्वे ते दुक्ख सभवा। लुप्पति वहुसो मूढा, ससारम्मि अणतए11 (उत्तराध्ययन 6/1) पद्मप्रभ इस अवसर्पिणी काल के छठे तीर्थंकर है। कवि आनन्दघनजी प्रार्थना के माध्यम से अपने मन की व्यथा व्यक्त करते हुए कह रहे है कि प्रभु तुम्हारे और मेरे बीच अन्तराल है। यदि क्षेत्र की दृष्टि से विचार करे तो लगभग सात राजू क्षेत्र का अन्तराल है। काल की दृष्टि से अवसर्पिणी काल के चौथे आरे मे वे मोक्ष गए थे और हम पॉचवे दुखमी आरे मे चल रहे है । इस प्रकार कह सकते है कि हजारो-हजार साल का अन्तराल हो गया है। द्रव्य-दृष्टि से भी हमारा आत्मद्रव्य पुदूगलो से मिश्रित है और प्रभु पुदगलो से उपरत होकर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त है। बड़ी बात यह है कि हम भाव से राग, द्वेष आदि पर्यायो से युक्त है और प्रभु शुद्ध सिद्धत्व पर्याय मे आरूढ है। इस प्रकार चारो अवस्थाओ से हम परमात्मा से दूर है। कवि भी इस दूरी को महसूस करते हुए निवेदन कर रहा है--'प्रभो। यह जो अन्तर पड़ गया है वह कैसे दूर हो ?' यह जो अन्तर पड़ा है इसके पीछे कारण है--हमारी द्र॒व्यात्मा ने कषायात्मा और योगात्मा से सबध जोड़ा है और जब तक यह साथ है तव तक दूरी मिट नहीं सकेगी । इन योगो का निर्माण आत्मा करती है और वे योग जब प्रवृत्त होते है तब शुभ-अशुभ, इष्ट-अनिष्ट से सम्पर्क करके कषाय भावो को पैदा करते है। इसके उपरात काषायिक भावों से कर्मबधन होता है। वैज्ञानिक तरक्की के आज के युग मे अनुसधान के क्षेत्र मे भी कुछ उपलब्धियाँ हुई है| यद्यपि विज्ञान चेतना तक नही पहुँचा है लेकिन उसके बहुत करीब तक पहुँच गया है। वैज्ञानिकों ने ऐसे यत्र ईजाद किये है कि यदि उनके सामने हम अपना हाथ रख दे और शुद्ध प्लेट पर फोटो लिया जाय तो केवल हाथ का ही फोटो नही आयेगा, उसके साथ पनपने वाली भाव तरगे भी अकित हो जायेगी और यह भी 5 45३5 धन ० जे भ्न , 3०. 5 जलन आग कह हे | आई जद आन किन जन पक अमन भा मा कह,




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