नरेन्द्र मोहिनी | Narendra Mohani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नरेन्द्र मोहिनी
- 5 लत फुडा
एक छोटी सी कोठरी मे आले पर चिराग जब रहा है, तीन तरफ
दीवार है और एक तरफ लोहे के मोटे-मोटे छड लगे हुए हैं जिसमे एक
छोटा-सा दरवाजा लोदे की सीखी का बना हुआ लगा है जो इस समय बन्द
है और उसमे बाहर से ताला बद है जिसके पास ही एक आदमी बैठा हुआ
है, शायद पहरेवाला हो । यह मकान हर तरफ से बाद है, कही से अ'स्मान
दिखाई नहीं देता। आजक्ल शुवल॑-पक्ष है मगर यद्धमा की रोशनी भी
कही नही दिखाई देती जिससे मालूम होता है कि शायद यह जमीन के
अदर कोई तहखाना है जहा दिन और रात का भेद कुछ नहीं जाना जाता ।
इसी कोठरी के अदर वहादुरसिह बठा हुआ धीरे-धीरे कुछ मोल रहा है
“हा, कहते थे नालायक से कि मुझे मत सता ! मैं ब्राह्मण है, मेरी आह
पड़ेगी तो जल मे! भस्म हो जाएगा । मगर सुनता कौन है ? अपनी बहादुरी
के नशे मे यह मानता किसको है ? दौलत के धमण्ड मे वह किसी को समझता
ही क्या है ! खूबसूरत पाच औरतें वग्रा मिल गई कि दिमाय आसमान पर
चढ़ गया ! 'रहो बचा, दो औरतें तो छिन गईं बाकी की तीनो भी छिनी जाती
हैं | और जगल मे गंडी हुई तेरी दोलत भी तेरे हाय से निकल जाय तब मेरा
कलेजा ठण्डा हो ! नालायक, मैंने तेरा क्या विगाडा था कि मुझे राह चलते
पकड़ लिया और साल भर से मुफ्त मे अपती खिदमत करा रहा है, जान भी
नहीं छोडता । हाय ! मेरे मां बाप, लडके-बाले, जोह जाने क्या कहते होग,
मुझे कहा-कहा ढूढते होंगे । खर, उनकी तो कुछ पर्वाह मही मेरा तो शरीर
ही सकट मे पड़ गया था दिन में बीसं-बीस मतबे गदहे को भग पीस-पीस के
पिलानी पडतो थी । चलो उससे तो छुट्टी हुई ! मेरा क्या ? यहा भी खाने
को मिलता था, यहा भी मिलेगा, घोडे को कोई ले जाय खाने को घास तो
देहोगा । मेहनत से जान बचो, अब इसी कोठरी मे बढे डण्ड पेलेंगे, | वाह रे
महादुरसिह ! तू भी बिस्मत का बडा ही जबर्देस्त है | !
फोठरी के बाहर बठा हुआ पहरेवाला अपनी गदन नीचे किए हुए बहादुर
सिंह की यह भनभनाहट सुन रहा था। जब वहादुरतिह अपनी बात तमाम
चुका तब उसने इनशी तरफ सिर उठा कर देखा और कहा--/
रन
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