प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा | Prachin Kavyo Ki Roop Prampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4. खलावरी' इसके नापातर हैं। जायतो में भी फागुन भौर होली वे' प्रतय में चावरिया चौँचर व, उल्लेख है। जिनतत सूरि जी ने जिववल्लम सूरि जी की स्तुति में ४७ पद्चों बी घथरी तामक रचता अ्पन्न हा में रवी है, जो प्रपश्न ता 'बाब्यनथीं में प्रकारित है। इसके परचाद्‌ जितप्रम सूरि, सौलण, जिनेश्वर सूरि ओर एक अतात कर्ता की,ये चार चचरियाँ चौदहवीं वती में रची गई ६ इनमें से सोलण वालो ३८ पद्यों को रचता प्रा० गु० बाच्यत ग्रह में मकशित है है (२१-१२) जमामियेक, कताश-- तीपबरों के जम के श्रवसर पर उोहें इद्रादि देव मेदशिसर पर ले जाकर स्नातक वरते हैं, उस समय के भाव वो प्रकाशित करनेवाली रवना को 'जमाभिपेव दा बला सन्नादी गई है । तीपकर की अतिमा को अलथ से स्तान बराते समय ये रखानाएँ बोली ऊाती हैं। ऐसी लगभग १५ रचनाएं घौदहवीं से सौलहवी सती तक की उपलब्ध हैं । प्रव उनका स्थान पीछे की दनी हुई हताश्रपूजा' ने ने लिया है, अत इसका प्रचार नहों रहा। इस विषय पर “जैन मध्य प्रवाध,' बय १४ भक ४ में प्रो हीराजाव कापडिया का 'जम्मामिसिय ने महावीर कलस! लेख प्रदाशित है (२३ २५) ताथमाला, चत्य-परिपाटी एवं संघवरणन-- जिस रचना में जन तीपषों थी मामावी हो उसे 'तीयमाला', जिसमें एज ही स्थान वा अ्रतेक स्थानों के जन मदिरों को यात्रा का अनुक्र! से बणन हो उसे 'उत्प परिपाटी' वा 'परिवाडी” तथा जिसमें साधुन्माघ्दा-श्रावक श्राविवा चतुविध स घ के साथ की गई तीर्थयावा का वरान हो उसे 'सिपवाश ना स शा दी गई है। तोयमाला ता प्राचीन भी मिलती है. पर घत्य-परिपाटी चोल्डवी दाताली मे ही प्राप्त है। स घवरान सतरहवी रावाब्दी स॑ भ्रधिक श्राप्त होता है। अनेव स्थानों दी ऐतिहासिक सामग्री ऐसो रचतांग्रों में संकलित है। कई तीथमासाएँ बहुत विध्वार में लिखी गई हैं और उनमें भारत के प्राय मी जैठ तीथों के वर्यन हैं। ती्थयात्रा वरनात्मक स्तवन भी छोटे बडे घनेक मिलते हैं। प्राचीत तीयों या म्रग्रह होपमाला स ग्रह, पाटएु चे हय परिपाटी' एवं ऐसी भ्राय बहूत सी रचनाएं प्रकाशित हो थुवी हैं। प्रशक्षतित रचनाए हमन समृहीत बर ली हैं, वे यधासमय अंवाधित की जायगी । अदिशप द्रप्टय-अपन्न श॒ वायवयी पृष्ठ ३१८, ३४ पथ 'टैन रए्प प्रदाश! वा ३३ अक ६ में प्रदाशित थी हीगलाल कपरिया का चरदेरी' शीपड सेख 1




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