पद्मपुराणम् | Padampuranam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
41 MB
कुल पष्ठ :
490
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सप्तपष्टितमं पर्व
स्वदृतवचन श्रुत्वा राक्षतानामधीखरः । क्षण संमनन््त्र्ण कृत्या सनत्रशेः सह सन्तन्रिमिः ॥१॥
कृत्वा पाणितले गण्ड कुण्डछालोकमाधुरम् । अधोमुसः स्थित. किंचिदिति चिन्दामुपागतः ॥२॥
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नागेन्द्रवुन्दसंबद्दे युद्धे शत्रु जयामि चेत् | तथा सति कुमाराणां प्रमादः परिदृश्यते ॥३॥
सुप्ते शत्रुवले दत्ता समास्यन्दमवेद्तिः । आनयासि कुसारान् कि कि करोमि कथ शिवस् ॥४॥
इृति चिन्तयतस्तस्य सगधेश्वर शोसुपी । इयं समुदगता जातो यया सुसितमानस- ॥ण॥
साधयामि महाविद्याँ बहुरुपामिति श्रुताम् । प्रतिव्यूहितुसु ध्क्तरशक्यां ब्रिदेशेरपि ॥६॥
इति ध्यात्वा समाहूय किक्षरानशिपद् हुतस् । कुरुष्व॑ शान्तिगेहस्य शोभां सत्तोरणादिभिः ॥७॥
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पूर्जां च स्येपु सवसंस्कारयोगिपु । सर्वश्वायं सरो न्यस्तो मन्दोदया सुचेतसि ॥८॥
विंशस्य देवदेवस्थ वन्दितस्य सुरासुरैः | मुनिसुध्रतनाथस्य तस्मिन् काछे महोदये ॥९॥
सर्वन्न मरतक्षेत्रे सुविस्तीण महायते । अहंच्षैत्यैरियं पुण्येंसुधासीदलकृता ॥१३०॥
राष्ट्रधिपतिमिभूप: श्रेष्टिमिर्मासमोगिमिः । उत्थापितास्तदा जैनाः प्रासादाः प्थुतेजलसः ॥११॥
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अधिप्टिता झ्वर्ण मक्तियुक्तेः शासनदैवतेः । सद्धमंपक्षसंरक्षाप्वणे: शुभकारिमिः ॥३२॥
सदा जनपदे: स्फीसे. कृतामिपवपूजनाः । रेजुः स्वर्गविसानामा भव्यकोकनिपेविता: ॥१३॥
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पर्वते पर्वते चारी थ्रामे आमे चने बने । पत्तने पत्तने राजन हम्य हम्ये पुरे पुरे ॥१७॥
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मथानन्तर राक्षसोका अधीश्वर रावण अपने दूतके वचन सुनकर क्षणभर भन्त्रके जान-
कार मन्त्रियोके साथ मन्त्रणा करता रहा। तदनन्तर कुण्डलोके आलोकसे देदीप्यमान गण्डस्थल-
को हथेलीपर रख अधोमुख बेठ इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि ॥१-२॥ यदि हस्तिसमूहके
संघट्टसे युक्त युद्धमे शत्रुओको जीतता हूँ तो ऐसा करनेसे कुमारोंकी हानि दिखाई देती है॥शा।
इसलिए जब शत्रुसमूह सो जावे तब अज्ञात रूपसे धावा देकर कुमारोको वापस ले आऊ?
अथवा क्या करूँ ? क्या करनेसे कल्याण होगा ? ॥४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि है मगधेदवर !
इस प्रकार त्रिचार करते हुए उसे यह बुद्धि उत्पन्त हुई कि उसका हृदय प्रसन््त हो गया ॥५॥
उसने विचार किया कि में वहुरूपिणी नामसे प्रसिद्ध वह विद्या सिद्ध करता हूँ कि जिसमे सदा
तत्पर रहनेवाले देव भी विघ्त उत्पन्न नही कर सकते ॥६॥ ऐसा विचार कर उसने शञ्षीत्र ही
किकरोको बुला आदेश दिया कि शान्तिजिनालयकी उत्तम तोरण आदिसे सजावट करो ॥७॥
तथा सब प्रकारके उपकरणोसे युक्त सर्व॑मन्दिरोमे जिनभगवानुकी पुजा करो। किकरोको ऐसा
आदेश दे उसने पूजाकी व्यवस्थाका सब भार उत्तम चित्तकी धारक मन्दोदरीके ऊपर रखा ॥4॥
गौतम स्वामी कहते है कि वह सुर और असुरो द्वारा वन्दित बीसवे मुनिसुत्रत भगवाचुका महा-
स्पुदयकारी समय था। उस समय हूम्बे-चोड़े समस्त भरत क्षेत्रमे यह पृथ्वी अहन्तभगवानुकी
पवित्र प्रतिमाओसे अलुंकृत थी ॥९-१०॥ देशके अधिपति राजाओं तथा गाँवोका उपभोग करने-
वाले सेठोके द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिन-मन्दिर खडे किये गये थे ॥११॥ वे मन्दिर, समी-
चीन धर्मक्रे पक्षकी रक्षा करनेमे निपुण, कल्याणकारी, भक्तियुक्त शासनदेवोसे अधिष्ठित थे ॥१श॥
देशवासी लोग सदा वेभवके साथ जिनमे अभिषेक तथा पुजन करते थे और भव्य जीव सदा जिनकी
आराधना करते थे, ऐसे वे जिनाछूय स्वगंके विमानोके समान सुशोभित होते थे ॥१३॥ है राजन !
१ बुद्ध म । २ स्वचेतसि म. ।
देर
तर 5/१ ७४5 5. ५४3५ ४८5० 5 “3,
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