अणुव्रत की ओर प्रथम भाग | Anuvrat Ki Aur Pratham Bhag
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
150
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डरे
एक सिराग ! एक ज्योति [
--तात्कामोन कांप्रेश प्रप्पक्ष भ्री ए० ल« हवर
श्रौगग के कई पहलू होते हैं। मर॒ुप्य को प्रपमे छरीर परिबार, उसकी
भ्रापिक स्पिति प्रौर साभ ही साथ शतिक जीवन-बिकास की साधता कौ फिकर
करनी पड़ती है। पहले परिदार के लिए इन्सान घिल्ता करता है उसका दिमाम
परेधान रहता है भ्ौर प्रापे चक्कर समाज कौ फिहर करता है। यह सब
इसप्षिए कि जिससे वह पपने निजी परिबार ब समाज के जीवन को सम्माक्
सके । परन्धु मनुष्य पक्तु सहीं उसका क्रीबग रूाप्े-्पीने तक ही सीमित भहीं है ।
उसमें पशु कौ प्रपेक्षा रो बातें विशेष रूप से हैं एक शो प्रात्म-स्फूरणा भौर
दृपतरी बिभेक-धुद्धि | इमके उपसोम पे ही ममुप्य का बीबन शनता है प्रामे रुसे
बतातः है ( प्रणुपद-- प्रास्म-स्फुरएा का सस्देण रो अत-डस तक पहुंचा रहा है |
फृघ घोग सोचते हैं कि भाषिक गिगास हुप्रा सो सब ठीक हो जायेगा पर
बस्तुत' दात ऐसी मह्ढी है । दुनिया में स्यावाठर जो सोग हैं, बे छ तो परिगार
को छोड़ सकते हैं प्रौर न उसके मोह को उसकी याद कोः ऐसी हालत में कोई
रथ मार्ग दृढने की चरूर। है। प्राचरार्म भरी ठुससी ते कर्णा बुद्धि ऐे हमें बह
रास्ता दिल्लाने के पिए भ्रणुषत-भानदोलन शुरू किया है, जो जीगन के मैतिक
स्तर को ठीक करता है। झिस तरह अतुफकोण के एक कोर के ठीक हो आते
पर बाकी के तीन कोश स्वत ठीक हो जाते हैं उस्ती तरह जीवन के नैतिक
पक्ष के ठीक हो बासे से उसके प्रस्पाग्प पहचु भी स्वत' भुपर जाते हैं।
शुपबा-पैा जीगत का क्षय नही है । इससे प्ादमी ग गिरता है से बढ़ता
है। यही कारण है भारतीय संस्कृति से स्पये-पैप़े पर कमी घोर नहीं रिया ।
भाश्त की यह सांस्कृतिक विशेषता रही है । हमारे मस्तक रादैब उन घक्िअरतों
के चरणों में कूके हैं, जिस्दोंमि मामणब-लाति को पाने से श्रागे से जाने की
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