मत्स्य पुराण उत्तरार्ध | Matsya Purana Uttarardha

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Matsya Purana Uttarardha by राधेश्याम खेमका - Radheshyam Khemka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय १३५ ) न्‍उकेलीलण न # शंकरजीकी आहाले इन्द्रका जिपुरपर आक्रमण # ४८१ कल जीत अल नन्‍्दीश्यरे गते तत्र गणपाः ख्यातविक्रभाः। दुद्गुबुर्जातसंरम्भा .विद्युन्मालिनमासुरम्‌ ॥ ४५॥ घण्टाकर्णः शह्रकर्णो महाकालुख् पापपदाः | ततश्व सायकेः सर्वोन्‌ गणपान्‌ गणपाकृतीन ॥ ५० ॥ भूयो भूयः स विव्याथ गगेग्वरमहत्तमान,। भित्तवा भित्त्या रुराबोश्नेभस्यस्थुधरों यथा ॥५१॥ तस्यारम्भितशबेन. नन्‍दी.. दिनिकरप्रभः। सा लम्य ततः सो5पि विद्युन्मालिनमाद्रवत्‌ | ५२॥ रुद्रदत तदा दीप्ते दीप्तानलसमप्रभम्‌ । बज वज्जनिभाज़स्य दानवस्थय ससजे ह ॥५३॥ तक्षन्दिभुजनिमुक्त मुक्ताफलविभूषितम्‌ । पपात वक्षखि तदा बच्चे देत्यस्थ भीषणम्‌॥ ५४॥ स॒ वज़निहतो देंत्योी. चज्संहननोपमः। पपात वज्जाभिहरतः शरक्रेणाद्रिरिवाहतः ॥ ५७॥ दैत्येश्वर॑विनिहत नस्दिना. कुलनन्दिता। चुक्रशुदोनवाः प्रेकष्य दुद्रुबुश्ध गणाधिपाः ॥ ५६॥ दुशखामर्पितरोपास्ते चिटुन्मालिनि पातित । तुमशेलमदात्रा्ट पय्रोदाः सखजुर्यथा ॥ ५७॥ ् सिरणि रे आ कि [७५ ते पीड्यमाना, गुरुभिगिरिभिश्व - गणेश्वराः। कतव्य न विहुः किचिहन्यमाधामिका इध ॥ ५८॥ तनो5सुर्वगः श्रीमांस्तारकाज्यः प्रतापवान्‌ ।स तरुणां गिरीणां थे तुल्यरूपघरों बभी॥५००५॥ मिन्नोत्तमाझा गंणपा. सिन्‍्नशदाक्वितानन; । बिरेजुभुंजगा मन्नैवीयमाणा यथा तथा॥ ६० ॥ सलीभ्के घायठ होकर एणमूमिसे हट जानेगर समान ठोत शरीखाहा दँत्य विद्युन्माडी उस कासे आहत विद्यलपराशी घधष्ठाकर्ण, शटुकर्ण और महाकराठ होकर उसी प्रकार धराशायी हो गया, मानो इन्द्रके आदि प्रवाद परापदगण झुड होकर एक साथ राक्षत्त पहाससे प्रेत गिर पढ़ा हो। अपने हुछ (वर्ग )को आम मद मासित हर को आनचित करनेवाले नन्‍्दीद्वारा देश्यतज बिधुन्मालीको गणेखरेंकों, जो गर्णेश-सदश आकृतिवालि तथा गण श्षताम है प्रधान ये, बरागोंद्रारा लगातार बींपना आरम्भ किया। दानवढोग चीत्कार करने ढगे। तत् गगेखरोंने उनपर धात्रा त्रोल दिया । विद्युत्मालोके मारे बह उ्ों घायल करके इतने उच्च खरमे सिंहनाद बता था मानों आकांदाम बादल करज रहे हीं । उसके जानेपर दानव दुःख और अमपके कारण क्रोश्से भरे, उस सिंदनादने सर्य-सरीख्े प्रभाशाडी नम्दीकी मूर्छा भंग हो गयी, सत्र थे भी विशुमादीएर चढ़ भागे | उस समय उन्होने रढद्वास दिये गये एवं प्रखडित ऑिके ममन प्रभाडाही चगमकते ईए बनीं कतुस्य कंथर दरगीसयालि दालबके अपर चेटा दिया। तब नली पपमें छूठा दुआ मोतियोंसे विभूपित के भर्मकर बज विश्युत्मातीके बक्ष/्थटवर जा गिर फिर तो सम्के मय्रेन. मायावीयेंण तथामुरवरः श्रीमास्तासकास्यः ताग्दासफण. वॉयलि शग्वपस्तदा गणशा बिंधुरा हुए थे। वे गणेश्वरोंके ऊपर बादछकी भौति दुक्षो और पर्वतोंकी महान्‌ शष्टि करने छगे | विशाल पत्नतेंके प्रहाससे पीड़ित हुए सभी गणेल्र ऐसे फक्रिकतंव्यविमूद है| गये, जेसे अवार्मिक जन वन्दरनीय गुरुजनोंके प्रति मे जाते हैं। तइनन्तर असुरनायक्र प्रतापी श्रीमान्‌ तारबआाक्ष दक्ष एसं पर्तोके समान रूप धारण करके रणभूमिमं उपस्थित हुआ || १९-६० ॥ ' धध्यमाना. गर्णेशवराः । भ्रमन्ति बहुशाव्दालाः पश्चरे शक्ुना इब ॥ ९१॥ प्रनापधान । दाह थे बल सर्वे शुप्केत्थनमिवानद/॥ ई*॥ गणा।ः । मेन मायानिहतास्तरकास्येण चेपुमिः॥ ६९॥ ज्ञाता जीणमूछा यथा हुमाः॥५%४॥ हद हि भ्ुयः सम्पतत चाग्निग्रहान आहन्‌ भुजंगमान्‌ | गिरीन्द्रांइच हगीनव्यात्नान ब॒क्षान झमरवणकान)॥ ६५ )॥ आप 4 शरभानप्रपादांध्य पत्रतमध थ। मयो मायावलेनैंच पातयत्येब. शत्रुपु ॥ ६६॥ न ताकालण मं मायया रुम्मुमाना विवशा गणदवराः। ने घायतवंस्त मनखापि चेष्टितु यथन्द्रियाथों मुनिनाभिसंयताः ॥ ९७ ॥ हा ४५ ५ मद्रान्नलाग्यादिसकुअरोर्गेदरी विवाध्यमानास्तमसा. विमोद्दिताः समुद्रमध्येप्विव र्वव्यापक्षतरक्षुराध्षसः । गाश्नकान्लिणः ॥ ६८ ॥




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