भगवती सरस्वती की वंदना | Bhagwati Sarswati Ki Vandana

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Bhagwati Sarswati Ki Vandana by राधेश्याम खेमका - Radheshyam Khemka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अङ्क 1 * श्रीसिद्धसरखती स्तोत्र मन्र-पाठ + ই कापसी ा ४ श्रीसिद्धसरस्वती-स्तोन्न-मन्त्र-पाठ भारतीय शास्त्राक अनुसार अपने अभ्युदय और कल्याणके लिये लौकिक पुरुषार्थक साथ-साथ दैवी पुरुषार्थका भी महत्त्व है ) बुद्धिकी अधिष्ठाप्री भगवत्ती सरस्वत्तीकी कृपासे ही मूढ़ताका अपोहन होकर सदबुद्धि, सत्‌ शिक्षा वाभ्विलास ओर वास्तविक क्षानकी उपलब्धि होती है । शरेयार्थीको साधनाकी परम आवश्यकता टै 1 यहाँ जिज्ञासु शिक्षार्थकि लिये सिद्ध-सरस्वती-मन्त्र- स्तोत्रका प्रयोग प्रस्तुत किया जा रहा है जिस 'परमगुरू साक्षात्‌ भगवान्‌ सदाशिवस प्राप्त हुआ मानकर सम्यकुरूपसे नियमित अनुष्ठान करनेपर भगवती सरस्वतीकी प्रसनता निधितरूपस प्राप्त होती है | प्रयोग-विधि प्रात काल स्रान-सध्यास निवृत्त होकर उत्तरभिमुख या पूर्वाभिमुख आसनपर बैठकर सर्वप्रथम निम्नलिखित मन्त्रोंसे आचमन करें-- 39 ए आत्मतर््व॑ शोधयामि नम 39 यलीं चघिद्यातत्व शोधयामि नम # ॐ सौ शिवततत्य शाधयामि नम स्वाहा । ३० ऐं क्लों सी सर्वत्व शोधयामि नम स्वाहा 1 सकल्प--ॐ अद्य गोत्रोत्पन्नो5हे नामा5ह मम कफ्रायिकवाचिकमानसिक ज्ञाताज्ञातससकल- दोपपरिहारार्थं श्रुतिस्पृतिपुराणोक्तफलप्राप््यर्थ परमेश्वरीभगवतीसरस्वतीप्रसादसि दघ्यथ॑सिद्धसरस्वती खीजमन्मरस्य जप सरस्वभीस्तोतरपाठं च करिष्ये । विनियोग--ॐॐ अस्य श्रीसिद्धसरस्तीस्तोन्नमन््रस्य भगवान्‌ सनत्कुमार ऋषि अनुष्टुप्‌ छन्द , श्रीसिद्धसरस्वती देवता र षीजम्‌, सदवदेति शक्ति सर्वविद्याप्रपन्नायेति कीलकम्‌, ममर खाग्विलाससिद्धूयथै जपे विनियोग 1 स्वाहा 1 स्वाहा 1 करन्यास ॐ दा हीं द्‌ अद्ुषठाभ्या नम । ॐ श श्रीं ही तर्जनीभ्यां नम ॥ জলা क्लीं क्लूं मध्यमाभ्या नम 1 श्रा श्रीं श्रू अनामिकाभ्यां नम । आ दीं करौ कनिष्ठिकाभ्या नम । धा ध्रीं घ्रू करतलकरपृष्ठाभ्यां नम । ह अस्त्राय फट्‌ ॥ र रे इत्यग्निप्रकारान्‌ मूलेन व्यापकं कृत्वा सौ सरस्वतीयोगपीठासनाय নন | ध्यान दोर्भियुक्ताश्रतुर्भि स्फटिकमणिमयीमक्षमाला दधाना हस्तेनेकेन पद्म सितमपि च शुक पुस्तक चापरेण। या सा दुन्देन्दुशड्डस्फटिकमणिनिभा भासमाना समाना सा मे याग्देवतेय निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥ जो चार हाथोसे सुशोभित हैं और उन हाथोंमें क्रमश स्फटिकमणिकी बनी हुई अक्षमाला श्वेत कमल शुक और पुस्तक घाग्ण किये हुए है तथा जां कुन्द चन्रमा शष ओर स्फटिक मणिक सदृश ददीप्यमान होती हई समान रूपवाली रँ वे ही ये वाग्दवता सरस्वती परम प्रसन्न होकर सर्वदा मेरे मुखे निवास कर । आरूढा शचेतष्ठसे भ्रमति च गगनं दक्षिणो घाक्षसूष्र वामे दस्ते च दिव्याम्बरकनकमय पुस्तक ज्ञानगम्या 1 सा सोणा वादयन्ती स्वकरकरजप शाख्रचिज्ञानशब्दै क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना )1 श्वेतपद्मासना देखी श्चेतगन्धानुलेपना । अर्चिता मुनिभि सर्क्पिभि स्तूयते छदा ॥ एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाच्छित लभते नर ॥ जो श्वेत हसपर्‌ सवार होकर आकाशे विचरण करती हैं जिनके राहिने हाथमें अक्षसूत्र और बायें हाथ दिव्य खर्णमय वसं आवेष्टित पुस्तक शांभित ह॑ जो वीणा बजाती हुई क्रोडा करती हैं और अपने हाथकी कस्मालासे शास्त्र॒जन्य विज्ञानशब्दोंका जप करती रहती हैं जिनका दिख्य रूप है जो ज्ञानगम्या है हाथमें कमल घारण करती हैं और श्वेत कमलपर आसीन हे টা & & £ £ &




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