उत्तराध्ययन सूत्रम भाग 1 | Utaraadayayan Sutram Bhag 1

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Book Image : उत्तराध्ययन सूत्रम भाग 1  - Utaraadayayan Sutram Bhag 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कक) “7 कत की ऋय अवजातसक ज्कब्जुवासत्तात तब से भगव दे जाव्रपज्जुवासमाण छ््चें की है ५ भंते $ | + . वयासि--उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अटब्ठे हक हु ५ ५ ५ | पण्णत्ते ? एवं ख्ु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं, एवं उवंगार्ण पंचवग्गा पण्णत्ता ? त॑ं जहा---१ निरयावलियाओ २ कप्पव्डिसियाओं ३ प्रुष्फियाओ ४ पुष्फचूलियाओं ५ वषिहद्साओ” इत्यादि ! «इस पाठ के आगे वर्गों के कतिपय अध्ययनों का वर्णन किया गया है । इस पाठ से यह स्फुट नहीं हो सकता कि--ये उपांगों के पाँच वर्ग कोन ' कौन से अंगशास्त्र के उपांग हैं। यद्यपि पूर्वाचार्यों ने अंग और उपांगों की कल्पना करके अंगों के साथ उपांग जोड़ दिये हैं, किन्तु यह विषय विचार- शणीय है। कालिक और उत्कालिक संज्ञा स्थानांगादि शाख्रों में होने से बहुत पु ३ ८ डे. है चर प्राचीन ग्रतीत होती: है । किन्तु उपांगादि संज्ञा भी उपादेय ही है। अथवा यह विषय विद्वानों के लिये विचारणीय है । आचार्यवर्य हेमचन्द्र जी ने अपने बनाये अभिधानचिंतामणि' नामक-कोप में अंगशात्रों का नामोल्लेख करते हुए केवल उपांगयुक्क अंगशाख्र हैं! ऐसा कहकर विषय की पूर्ति कर दी है। किन्तु जिस अकार अंगशास्रों के नामोल्लेख किये हैं, ठीक उसी प्रकार किस किस अंग का कौन कौन सा उपांगशास्त्र है, ऐसा नहीं लिखा है। इससे भी यह कल्पना अर्वाचीन ही सिद्ध होती है। हाँ, यह अवश्य मानना सड़ेगा कि यह कल्पना अभयदेव स्रि या मलयगिरि आदि घृत्तिकारों से पूषे की है ! क्योंकि उपांगों के इततिकार बृत्ति की भूमिका में उस उपांग का किस अंग से संबंध है, इस अकार का लेख स्फुट रूप से करते हैं। अतः बत्तिकारों के समय से भी यह कल्पना पूर्व की है, इसलिए यह कल्पना श्रेताम्बर आम्नाय में सर्वत्र भमाणित मानी गई है । | ४ 5 पा विधिविरुद्ध स्वाध्याय के दोष जिस प्रकार सातों स्तरों और राग़ों के समय नियत दं--जिस समय का




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