पातन्जल योगप्रदीप | Patanjal Yogapradeep
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
742
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ प्र, मीमांसा
जैमिनि आचाये का मत है कि मुक्त पुरुष ( अपर ) ब्रह्म रूप से स्थित होता है ।
क्योक्ति भ्रृति मे उसी हूप का उपन्यास ( वचेश्य ) है।
चिति वम्मात्रेण तदात्मकलादिस्योइलौपि: ॥ ( वेदस्त दशेन ४ ५४1६ )
ओडुजोमि आचाये मानते हैं. कि मुक्त पुरुष चितिसार ख्रूप से सित होता है
क्योकि यहा उसका अपना खरूप है। के
एवमप्युयन्पासान्पूर्व भावादविरोध वादरायणः || (बेब द० ४1 ४।७ )
अर्थ--इस प्रकार भी उपन्यास ( उद्देश्य ) हैं और पूर्व कहे हुए धर्म भी उसमे पाये
जाते हैं इसलिये उन दोनो में कोई विरोव नहीं है। यह बादरायश ( सूत्रफार व्यासरेवजी )
मले है |
अयॉन् प्रवृत्ति सागे वाले सशु् श्क्म के उपासक झयल ( सगुण ) म्बरूप से मुक्ति
में शवल अध्म ( अपर ब्रद्म ) के ऐश्वप्ये को भोगते हैं. जो जैमिनिजी को अभिमत है और
निरृत्ति मारे बाले निरृंण शुद्ध मह् के उपासक शुद्ध निर्गुण स्वरूप से शुद्ध निशुण ब्दा
( परत्ह्म ) को भाप्त छोते हैं. जैसा कि औदुलोमि आचास्य को अभिमत है। व्यासजा दोनों
विचारों को यथार्थ मासते है क्योकि श्रुति में दोनों प्रकार की मुक्ति का बैन है।
मीमोंसको के मोक्ष की परिभाषा इन झ्दों में है /प्रत्च-सम्मत्थ-विलयों
भोज त्रेघाहि प्रपश्यः पुरुषे वध्नाति तद॒स्य जिविवस्थापि बन्धस्थ आत्यस्तिफों बिलयो मोज्त:?।
( शास्त्र दीपिका ) इस जगत् के साथ आत्मा के शरीर इन्द्रिय और विषय इन तीन प्रफार के
सम्पन्ध के विन्ताश का नाम मोक्त है । क्योकि इन तीन बन््धनो ने ही पुम्प को जकड़ रकपा
है। इस त्रिविध बन््च के आर्ट्न्तिक नाड की संज्ञा-मो है। सोख्य और योग के अघुसार
यह सम्प्रजाव समाधि का अन्तिम ध्येय है।
जैमिनि रथरवादी ये
पूर्व जीर्माणा का मुख्य विषय यत्त और महायज्ञ है इसलिये औैभिनि मुनि ने प्रसंग
आप उसमे कमेकाएड का ही निरूपण किया है। ईश्वर के विस्तार पृवेक बर्णन की जो उत्तर
भीर्मासा का विषय है अपने दशेन में आवश्यकता नहीं देखी इसलिये कहीं कहीं ( वैशेषिफ
गर् सांज्य के सत्श ) इस दुर्दन के सम्बन्ध से भी अनीखर चादी होने की शंका उठाई
गई है। उसके समावान के लिये उपयुक्त स्पट्रीकरण पर्याप्त है। अनेक व्यास चूच्ो से
जैमिनि जो का ईश्वर वादी होना सिद्ध होता है। यथा:
सात्ञादप्यविरोध॑-जैमिनि! || ( वेदान्त> द० १1 २। ३८ )
अर्थ:-जैमिनि आचास्ये साज्ञात् ही वैश्वानर पद के इश्वरामेक होने में अविरोध
फथन करते है | तथा अध्याय १ पाद २ सूत्र ३१, अध्याय ९ पाद ४ सूत्र ९८, अध्याय ४ |
९
8.
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