श्रीमध्ववेदान्त | Shrimadhvavedant

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Shrimadhvavedant  by श्रीमन्मध्वाचार्य - Shrimanmadhvacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ ] आत्मावा भरे द्रष्व्यः: श्रोत॒व्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्य:' इत्यादि श्रुतिस्मृतिभ्य: । “कमंणा त्वधम: प्रोक्त: प्रसाद: श्रवणादिभ्रि: । मध्यमो जानसम्पत्त्या प्रसादस्तृत्तमो मतः॥ प्रसादात्वधमाद्‌ विष्णो: स्वर्ग लोक: प्रकीत्तित: । मध्यमाज्जनलोका दिरुत्तमस्त्वेव मुक्तिद: ॥ श्रवर्ण मनन॑ चेव ध्यान भक्तिस्तथेव च । साधन नानसम्पत्तौ प्रधान तान्यदिष्यते ॥ न चेतानि विना कश्चिज्जानमाप कुतश्चन ।* इति नारदीये बिना नारायण की कृपा के मोक्ष सभव नही है । बिना भगवान के स्वरूप ज्ञान के उनको कृपा भा सभव नहीं है। इसलिए ब्रह्म॑जन्नासा (विचार) करनी चाहिये । “जहां जिस पद का वाक्य का जो अर्थ अभिवा से लव्ध हो वहाँ उसे ही मानना चाहिए, जहाँ वसा सभव न हो तो अन्याथथं की कल्पना करती चाहिये” ऐसा बृहत्‌संहिता का मत है। ८ उस ब्रह्म को इस प्रकार जाननेवाला यहीं अमर हो जाता है,” इसको जानने का कोई दूसरा उपाय नहीं है, “ज्ञानी भक्त मुझे अत्यन्त श्रिय हैं, क्योंकि उसे मैं प्रिय हूँ,” परमात्मा जिसे वरण करते हैं उसे हो प्राप्त होते हैँ, “आत्मा द्रष्टव्य, श्रोतव्य, मतव्य और निदिव्यासितव्य है” इत्यादि श्रुति स्मृतियों से ब्रह्म- ज्ञान की महत्ता निश्चित होती है । “कर्माशक्ति को अधम कहा गया है, श्रवण मतन आदि भगवत्‌ संबंधी कर्मो से ही भगवत्क्॒पा प्राप्त होती हैं। भगवत्‌ सबंधी ज्ञान हो जाता मात्र मध्यम कोटि का प्रयास है, भगवत्‌ कृपा प्राप्त होना ही उत्तम बात है। विचा कृपा से स्वर्गलोक पा सकना अधम गति है । जनलोक में प्रशस्ति पा लेता मव्यम गत्ति है। मुक्ति देते वाली भगवत्क्ृपा ही उत्तम है। श्रवण, मतत्त, ध्यान और भक्ति ज्ञान प्राप्ति के प्रधान साधन हैं। इनके अतिरिक्त कोई और साधन नहीं हूँ । इन साधनों के बिचा कभी किसी ने ज्ञान नहीं प्राप्त किया |” ऐसा नारदपुराण का स्पष्ट मत है। -




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