परमार्थ पत्रावली भाग - 1 | Paramarth Patravali Bhag - 1

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Paramarth Patravali Bhag - 1  by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

Add Infomation AboutShri Jaydayal Ji Goyandka

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
परमार्थ-पत्रावली शक्तियों भूछ रद्दा है इसीलिये उसको माया प्रयकत प्रतीत होती दे । यदि अपनी दक्ति जागत कर छी जाय तो मायाकी दाक्ति सहजदीीमें परास्त हो ज्ञाय मायामे अप्तान देतु दे और शप्तानऊे नाशसे ही मायाका नाश है। प्र०-ज्ञिस समय चद्द ( परमात्मा ) किसी रूपभे अपना सप दिखलाता दे उस समय तो छुछ आनन्द सा दोता हे पर उस आनन्द्म उस आननन्‍्दरूपफो न पदचानफर जीव उसे छोड़ देता द, फिर पश्चात्ताप होता हे । सात्म नहीं, चद्द पश्चात्ताप असली हूँ या प्रवायटी | असछी होता तो क्यों नहीं पकड़ झेता ? उ०-ठीऊ दीं दे। पश्यात्ताप असली द्वोता तो छोड़ता रीक्यों? प्र०-एसी स्थितिम जीवका मोट नाश केसे दो ? उ०-संसारासकि ही इस मोहका कारण दे। उसका नाग चेराग्यसे दो सकता दे चराग्यमें पूर्वससश्तित पाप याधा देते हू परन्तु परमामाकी शरणसे उनझा भी नाश हो सकता दे । आगे) लेयमजानन्त शुतान्येम्प उपायत । वेश्षय आशिएल्येय ससु शुततपरयणा ॥ बाय इनमे दूर अर्थात्‌ को साद बुद्धिगले पुरुष ६ थे ( सगे ) दस प्रार मे शानों हुए, दूसरोंसे सर्मातू राष्यके दो पुरुषोंसे फ्ः ही नमक: हर के 4 २ री सुनार ही उफर्णा ऊस्ते & रेस मे मुयरेशे पशान्‍ण हुए पुदष मे मूसपुरूप समारण गरडा नि सादेह तर डे ए ।? क्यू छत बा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now