कुमारपाल चरित्रसंग्रह | Kumarpaal Charitrasangrah

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Kumarpaal Charitrasangrah by मुनि जिनविजय - Muni Jinvijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुमारपालच रित्रसंश्रह--प्रस्तावनादि वक्तव्य १७ आप ग्रजाका पालन पुत्रवत्‌ करते थे। अपने राज्यमें एक भी प्राणीको दुःखी नहीं रखना चाहते थे । प्रजा आपको 'राम' का ही दूसरा अवतार समझती थी । प्रजाकी अवस्था जाननेके लिए, गुप्त वेशसे भाप शहरमें भ्रमण करते थे। हेमचंद्राचार्य कह्ष्ते हैं कि-“दरिद्वता, मूर्खता, मलिनता इल्मादिसे जो लोक पीडित होते हैं. वे मेरे निमित्तसे हैं या अन्यसे ! इस प्रकार औरोंके दुःखोंको जाननेके लिए राजा शहरमें फिरता रहता था [” इस प्रकार जब गुप्त अ्रमणमें महाराजको जो कोई दुःखी हाछतमें नजर पडता था, तो आप झट अपने स्थान पर आ कर, उसके दुःख दूर करनेकी चेष्ठा करते थे। 'य्याश्रय महाकाव्यः के अतिम सर्ग (२० ) में भगवान्‌ श्रीहेमचंद्र लिखते हैं कि- महाराज कुमारपालने एक दिन रास्तेमें, एक गरीब मनुष्यको, चिल्लाते हुए और जमीन पर गिरते-पडते हुए ऐसे ५-७ बकरोकों खींच कर ले जाता हुआ देखा । महादगजने पूछा कि--इन मरे हुए जैसे विचारे पामर ग्राणियोको कहाँ ले जाता है ! ! उस मलुष्यने कहा-“इनको कसाईके यहों बेच कर, जो कुछ पैसा आएगा, उससे उदरनिवाह् करूंगा । यह सुन कर महाराज बडे खिल हुए और सोचते छगे कि-'मेरे दुर्विविकसे ही इस तरह छोक हिसामें प्रवृत्त होते है, इस लिए घिक्कार है मेरे प्रजापति नाम को !' इस प्रकार अपनी आत्माको ठपका देते हुए राजभवनमें आए और अधिकारियोंकोी बुछा कर सखत आज्ञा दी की-'जो झूठी प्रतिज्ञा करे उसे शिक्षा होगी, जो परत्रीरुपट हो उसे, अधिक शिक्षा होगी, और जो जीवहिंसा करे उसे, सब से अविक कठोर दंड मिलेगा-इस ग्रकारकी आज्ञापत्रिका सारे राज्य में भेज दो ।! अधिकारियोंने उसी बखत उक्त फरमान सर्वन्न जाहिर कर दिया | इस प्रकार सारे महाराज्य में -- यावत्‌ त्रिकूडाचछ ( रूँका ) पर्यंत - अमारीघोषणा कराई | इसमें जिनको नुकसान पहुंचा उनको तीन तीन वर्ष तकका अन्न दिया | मचपानका ग्रचार भी सर्वत्र बंध कराया । *यज्ञन्यागमें भी पशुओके स्थान पर अनका हवन होना शुरु हुआ | एक दिन महाराज सोये हुए थे, इतनेमें किसीक्े रोनेंकी अवाज सुनाई दी । आप ऊठ कर अकेले ही उस स्थान पर पहुंचे । जा कर देखा तो एक छुंदर ज्री रोती हुई नजर पडी । उसे पूछने पर माछूम हुआ कि, वह एक धनाव्य गृहस्थकी ञ्री है, उसका पति और पुत्र दोनो मर गये । वह इस लिए रोती थी कि-शाज्यका पूर्वकाल्से यह क्र नियम चला आता है कि संततिहीन मनुष्यकी मिल्कतका मालिक राज्य है-अतः इस नियमालुसार मेरी जो संपत्ति है वह सब राज्य ले लेगा तो फिर में अपना जीवन किस तरह विताऊँगी | इस लिए मुझे भी आज मर जाना अच्छा है ! महाराजने यह छुन कर उसे आश्वासन दिया और कहा कि-/तूं मर मत | राजा त्तेरा धन नहीं लेगा। छुखपूर्वक तूं अपनी जिंदगीको धर्मक्ृत्य करनेमें बिता ।! खस्थान पर आ कर महाराजने मनमें सोचा कि इस प्रकार, राज्यके त्रुर नियमसे प्रजा कितनी दुःखी होती होगी ! आपका अंतःकरण दयासे भर आया। प्रजाके इस त्रास को नहीं सहन कर सके | आपने अधिकारियोकों घुछा कर कहा कि-निष्पुत्न मनुष्यकी मृत्युके वाद, उसकी संपत्ति राज्य ले लेता है यह अद्यत दारुण नियम है| इससे प्रजा बहुत पीडित होती है, इस लिए यह नियम बंध करो । चाहे भले ही मेरे राज्यकी ऊपजमें छाख-दो-छाख तो कया परंतु ओड -दो-क्रोड रुपयेका भी क्‍यों न घाठा आ जाय अधिकारियोंने आपकी आज्ञाको मस्तक चढाया और उसी क्षण सारे राज्यमें इस कायदेकी क्रूरता दाव दी गई, जिससे प्रजाके हपका पार नहीं रह्य | तथा कर-दंड वगैरह मी आपने बहुत कम कर दिये थे । इस प्रकार आपने अपनी प्रजाको अत्यंत सुखी की थी। * इस बात पर शुजरातके प्रख्यात विद्वान, सहृत प्रो. मणिलाल नभुभाई दिवेदी लिखते है कि---“झुमारपालने जबसे अमारी घोषणा ( जीवहिंसा वध ) कराई तबसे यज्ञयागम भी मासवलि देना वंध हो गया, और यव तथा शालि होमनेकी चाल झुद हुईं । लोगोकी जीव जाति ऊपर अलंत दया घबढी । मासमोजन इतना निषिद्ध हो गया कि, सारे हिदुस्थान (बंगाल, पंजाब, इत्यादि ) में, एक या दूसरे प्रकारसे, थोडा बहुत भी मास, हिंदु कहलाने वाछे, उपयोगमे लाते है, परंतु शुजरातमें तो उसका गंध भी छग जाय तो, झट ज्ञान करने लग जाते है, ऐसी दृत्ति छोगों की उस समयसे वंधी हुईं आज पर्यत चली जा रही है 7? (देखो “व्याश्रयकाव्य' का शुजराती भाषांतर अमर सरकारका छपाया हुआ। )




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