निर्ग्रन्थ - परम्परा में चैतन्य आराधना | Nirgranth - Parampara Men Chaitanya Aaradhana

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Nirgranth - Parampara Men Chaitanya Aaradhana by आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) अभय प्राप्त होता है। उसका अनुष्ठान करने वाले संयमी की मति _ निपुण होती है । उस मति से पृथ्वी आदि के समारम्भ स्वरूप अच्ति के व्यापार का परिहार करता है । इसलिए निपुणमति वाला होने से जिसने परमार्थ को जान लिया वह अन्नि (तेजस्काय) के समारम्भ से ' निवत्त होकर संयमानुष्ठान में प्रवृत्ति करता है । जो अशस्त्र स्वरूप संयम में निपुण है, वह निश्चय ही दीघंलोक शस्त्र आस्तिकाय शस्त्र (बादर तेजस्काय ) का क्षत्रज्ञ है। यहां अहिसा और संयम परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध वाले हैं। असयमी केंद्ापि अहिंसक नहीं हो सकता और हिसक कभी संयमी नहीं हो सकता । अग्नि शब्द, तेजस्काय के अन्तगंत अनेक भेदों में से एक है । तेजस्काय के समस्त भेद शस्त्र रूप है । इसका द्योतत दीघलोक शस्त्र ' के शब्द से सूत्रकार ने किया है । शास्कारों ने तेजस्काय की भयंकरता के सम्बन्ध में विवेचन किया है । तेजस्काय और दीघेलोक शस्त्र के अन्तर्गत समग्र भेद-प्रभेद सन्नचिहित हो जाते हैं । जिसमें “विद्युत” को भी तेजस्काय स्वीकृति किया जाता है । * विद्युत की सचितता श्रागम के परिप्रेक्ष्य में-- १. श्री पन्नवणा चूत्र के प्रथम पद में तेजस्काय के वर्णन में बादर तेउकाय अनेक तरह को बतायी गयी है । जिसमें बिजली - “विद्युत” तथा (संघरिस सप््ुद्टिए) संघर्ष से समुत्पन्त हुई अग्नि को भी बादर तेउकाय में ग्रहण किया है । ु “जे थावण्णे तहप्पगारे” के पाठ से और भी वैसी ही अनेक तरह की अग्तियां ग्रहण की गई है। बिजली संघ से उत्पन्न होती है । 1, उत्तराध्ययन सूत्र के ३६वें अध्ययन में “विज्ज” शब्द से विद्युत को अग्नि में लिया है। (बादर तेउकाय के रूप में लिया है) श्री अभिधान राजेन्द्र कोष में प्‌ २३४७ पर तेउक्राय शब्द की व्याख्या में पिण्ड नियु क्ति--ओद्य नियुक्ति, आवश्यक मलयगिरि कल्प सुबोधिका बृहत्कल्प वृत्ति से उद्धरण है जिससे अग्निकाय तीन तरह की है ।




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