विश्वामित्र की खोज | Vishwamitr Ki Khoj

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Vishwamitr Ki Khoj by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[शर |] ह प्रार्मिर प्रेप कश्दी | घारिमर प्यार “महान प्रेम ! भारीेमय | शंता के मन में प्राश्मिक प्रेम की दिए दिकीर्स होकर प्रकाप्र-मूंच में परिणत हो मई | एसने एशरूप को तुरस्त प्र शिक्ला--“दुम पमुक दित, भ्रमुक याड़ी हे पा छाप्रो प्रणन्॒ प्रासे सक्षिका पात -- स्वक्य हिस्‍्ली रगासा हुप्रा | दिस्सी स्टेपत पर सता प्राइुसठा सै इथकुूप कौ प्रतौशा कए रहो बी | शार-बार बह भपने हैंइ-बेग से स्वरूप का विश निकास कर देख रही वी । बाड़ी भाई । भरता से देख। एक भस्यम्त लुब॒भूरत मौजबात दौ गहरे-तीसे चएमे के धशाोधों में श्फती पोले किप्ती को शोद रही हैं। बह पोरे-बीरे झ्(बठ दृष्टि से आरो प्रोर देखती इउके उमीप गई पीछे से प्रदयात बन कर प्रपमे मृदु्त स्वर में पुफारा--/स्वरुप !” स्वहप धुरन्त छत की घोर घूमा । इसके मुँह से चसचित्र के हीरों को माँवि टूटते घस्/ निकले 'डि पर 'सठा ) बह उसे देहृता रष्टा-प्रपप्तक प्रो निरम्तर ) “ब्तिए' परस्तिए! कुस्ती मे सापान उठाया । दे शोतों साप-साप चते | “हुलो सवा! तुम कहीं 7” 'पंदल' कहीं से कबाद में हह्टों कौ तरह भा रुप । बहू घबरा गईं। शोसी “दोह बहिन जी तो मरे में हैं । धाप चिट्ठी सिस्े ठो मेरा भौ समप्दे कह दीजिएपा 1” स्वहप हैएन परेधान प्लौर बिगड़ । “चलिए काचा जी (” शता चली यई | स्पकूप तुश्म्त सद रुसमः जया । बाट़क बिलेस कै प्रयेण पर हीरो वा सफस भ्रमिनय । सता चादा कोजिफर मी तिप्यौ' दिप्ता कर शोट साई । बबराई हुए भाकर




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