तूँ ही बाती तूँ ही जोत | Tun Hi Bati Tun Hi Jot
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
358
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साथ-साथ पुरुषार्थ भी पूरा था। पुरुषार्थी के लिए अथर्ववेद मे कहा भी है -
कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहितः (अथर्ववेद-7,50,8)
अर्थात् कर्म पुरुषार्थ मेरे दाएँ हाथ मे है और विजय मेरे बाएँ हाथ मे है।
कुछ वर्षो मे ही वह बहुत धन अर्जित कर चुका | निरन्तर पुरुषार्थ के कारण
कुछ वर्षो मे ही वह उस शहर का प्रथम धनाढ्य सेठ बन गया | पिता के द्वारा
कथित बात उसे याद आयी और बारह वर्ष पूरे होते-होते अपने गॉव मे जाने
की तैयारी की | किन्तु समस्या सामने आयी कि दोनो भाइयो को कैसे खोजा
जाए? इसके लिए उसने नवकार मन्त्र की रसोई की। उसमे एक भाई तो
मिल गया, जिसने ब्याज पर पैसे दे रखे थे। अब दूसरे भाई की खोज के लिए
एक-एक वर्ग को जिमाना प्रारम किया | कभी ब्राह्मण वर्ग को तो कभी क्षत्रिय
वर्ग को जिमाया | एक बार लकडहारे के परिवेष मे भाई दिखाई दिया | उसे
तरकीब से अपने पास रुकवा लिया | उसे एकान्त मे ले जाकर पूछने लगा
कि भाई, तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? वह अपने भाइयो को पहचानकर रोने
लग गया और बताया कि सट्टे आदि मे सारी सम्पत्ति खत्म हो गई थी | उसके
बाद से लकडी बेचकर मै अपना जीवनयापन कर रहा था। दोनो भाइयो ने
उसे अपने गॉव चलने हेतु कहा। वह तैयार हो गया।
तीनो भाई साथ-साथ मे अपने गाव पहुँचे | पिताजी ने पहले बडे बेटे से
पूछा। बडा बेटा रोने लगा। रोते-रोते ही अपनी सारी कथा भी सुनाई।
पिताजी ने कहा-ठीक है | दूसरे बेटे ने मूल राशि एक हजार मुद्राएँ सुरक्षित
लौटा दीं। तीसरे बेटे ने अपनी दुकानो की बहियाँ पिताजी के हाथ मे
पकडायी | पिताजी बहियो के पत्ते पलटकर देखने लगे | उनमे अपार सपत्ति
का ब्यौरा लिखा पडा था। सेठ उसे देखकर बहुत खुश हुए। सेठ ने तीनों
को बराबर राशि व्यापारार्थ दी थी। तीनो भाई व्यापारार्थ परदेश गये भी थे।
किन्तु वहाँ जाकर दो भाई आलस्य मे पड गए | अत एक भाई ने तो मूल पूँजी
ही गमा दी व दूसरे भाई ने मूल पूजी सुरक्षित रखी किन्तु बढाया कुछ भी
नहीं | तीसरे भाई के पुरुषार्थ ने कमाल कर दिया | अपने पिता के द्वारा प्रदत्त
एक हजार मुद्रा के द्वारा व्यापार करके पिता से भी अधिक सपत्ति वाला बन
गया | ठीक इसी प्रकार आप भी जब महान् आत्मिक वैभव को पाने के लिए
खडे हो ही गये है तो अब प्रमाद मत करो। आगे-आगे बढते चले जाओ |
इसलिए भगवान महावीर ने फरमाया है- “उद्धिए नो पमायए |”
एक बार एक बहिन के मस्तक मे भयकर दर्द हुआ। उसने अपने बेटे को
दवाई लाने हेतु मेडिकल स्टोर पर भेजा और कहा कि जल्दी से दवाई लेकर
आओ | मेरा सिर फटा जा रहा है। मुझे एक सैकिण्ड भी सहन नहीं हो रहा
है। बेटा भी दौडकर दवाई लेने घर से निकला किन्तु रास्ते मे एक बाजीगर
खेल दिखा रहा था | उसकी नजर उधर पडी | खेल आकर्षक था। अत वह
तूँ ही बाती तूँ ही जोत/25
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