समाधि शतकम | Samadhi Shatkam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६९) अध्यात्म सुखके समान ओर सुख नहीं है । श्री अध्यात्म सारमभे यशोव्रिनयजी कहते ह क्विः कानतावरसुघासादानूना यज्जायतें सुख ॥ किन्दुपार्ये तदंध्यामशात्र खाद सुखोदघः ॥ भावा4:-ज्जीरे अथर झप अमृतके स्वादसे युवान पुरुपोंकों जो सुख्ध उत्पन्न होता है, वे सुख तो अध्यात्म शास्रके स्वादसे उत्पन्न दोते हुए छुख सम्रद्रके सामने वे एक ब्रिंदु मात्र है । आत्म ज्ञानी मस्‍्मता कोई ओर ही मकार की है । यह मस्नताके सामने सर्य प्रकारकी क्षणिक मग्नता तुन्छ है । बास्ते ही कहा है कि आत्म ज्ञान परम सुखकारी है । ऐसा समनकर सर्व भज्य मीबोंगे उसकी आप्तिके लिये प्रयत्न करना चाहिये | आता त्ञान संत खुखोंका शिरोमणि है। आत्म बानद्वारा जो मग्नता होती है, वे मिसने जानी है वे ही जानता है। वे व।चादारा अब है। ६ चहिसत परथ्रेति त्रिधाष्मा स्व देहिप ॥ 2 / 63. की ४-2 उपयातत्र परम मध्यापायाद वहिस्वजत्‌ ॥ भाराग-सर्व शर्रौरोप बदिरास्मा, अंतरात्मा और परमात्मा एवं तोन प्रकारसे आत्मा रहा है। उसमें अंतरात््मा द्वारा पर- मास्याकी माप्ति करना; और बहिरात्माका त्याग करना ।




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