वायु पुराण खंड १ | Vayu Purana Khand-i
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
526
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जन्म:-
20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)
मृत्यु :-
2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत
अन्य नाम :-
श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी
आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |
गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
पत्नी :- भगवती देवी शर्मा
श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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अनेक पर्िर्तेद और परिवरद्ध न देश-काल के प्रभाव से हुये हैं । राज्यो मे,
शासन-सस्या मे जंसे-जेसे परिवर्तत होते गए उसके प्रभाव से लोगो के रहन-
सहन बोर विचारों में परिवर्तत हुये ओर कथा वाचको ने उनके अनुकूल बातें
वटादी । भिल्ल-मिन््न प्रदेशों को परिस्थितियों के प्रभाव से जिन पुराणों का
जहाँ अधिक प्रचार था उनमे वहाँ क्ये वातों को विशद्येप स्थान दे दिया गया |
साम्प्दायिकता के बढने पर उनके आचारयों और विद्वानों ने अपने सिद्धान्तो की
पुष्टि करने वले उपास्यान और विवरण पुराणों में “सम्मिलित कर दिये ।
अन्तिम पर एक बडा कारण कषावाचको की स्वार्थपरता का भी हुआ जिससे
उन्होंने ब्रत, तीर्थ, श्राढ, दान के प्रकरणों को खूब बढ़ाया और अधिक से
अधिक दान देने की महिम्ता का प्रतिपादन किया। इस ख्लेणी की मिलावट
क्रमण इतनी अधिक बढ गई और विभिन्न भ्रकार के दानो के परिमाण तथा
उनके पुण्य फल को इतना वढा-चढा कर कहा गया कि श्रोताओं को उससे
विरक्ति होने लगी | पुराणों में जित ब्रह्माडदान, मेरु-दान, धरा-दान, सप्त-
सागर दान, रत्नमयी घेनुदान आदि का जो वर्णन किया गया उनकी साप्रग्री
की ल्ायत कई लाख रुपये तक पहुंचती है । हर दाव मे सोते की मूतियों और
रत्तों का विधान बंतलायां गया है | एक लेखक के क्थनानुसार “इन दानो के
वर्णवा को पटकर कभी-कभी तो ऐसा जान पडता है जँपे कोई आधुनिक वाल
का घटिया विज्ञापददाता अपनी किसी वस्तु को धारीफों का पुल शा
रहा हो 1”
इस मिलावट तथा हीन मनोवृत्ति का परिणाम यह हुआ है कि वर्तमात
समय में अधिक्षाश शिक्षित व्यक्षितयों ने पुराण-स्ताहित्य को कोरी ग्प्पो का
खजाना मान लिया है ओर वे विना देखे सुने ही एक परे से समस्त पूराणो
को नौर उनको तमाम बातो को निरर्थंक कौर बेकार घोषित कर देते हैं । यह
अवस्धा समाज तथा धर्म के लिये अवांछनीय ही कही जायगी। इसके फुल-
स्वर्प हम उम्च लामकारी और जन-कल्याणकारी साहित्य वचित रह जायेंगे
जो पुराणों मे पर्याप्त परिमाण मे सन्विहित है। इस समस्या के समस्ठ पह-
लुओ पर विचार करके एक पुराणों के ज्ञाता विद्वाव ने निम्न उदयार
ध्यक्त कये हैं---
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