कर्ण कुतूहल | Karn Kutuhal

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Karn Kutuhal by पुरातत्त्वाचर्या जिनविजय मुनि - Puratatvacharya Jinvijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( (४ ) सोरभ सरस पति भोंर लो छकक्‍्याई रहे, कहे भोलानाथ मनहर नीक धरनी! इदीवरनेनी इंटुमुखी बिद भाल जाके, सदाशिव मंदिर में इद्रा सी घरनी ॥ ६ ॥ ब्धु | भोलानाथ करें सदा, इम अशीष ठाढ़ों ॥ भट्ट सदाशिव की सदा, जय जय नित बाढ़ों ॥७॥ इसी प्रकार कितने ही अन्य कवियों द्वाशा भी इनका यशोगान हुआ है जा $र्न्ह के घराने में संगृहीत एक गुटके में लिखित हे ॥ महाराजा प्रतापसिहजी का जीवन-वृत्त ॥ जयपर ओर आमेर के महाराजाओं का इतिवृत्त वीरता ओर नीतिपट्ता के साथ साथ उनके साहित्य-प्रेम, विद्वत्समादरबृत्ति तथा गुरणग्राहकृता स ओतग्रोत हे । महाराजा मानसिंद जब काबुल ओर बंगाल के अभ्नियानों में नेता बनकर गये तो यश और धन के साथ साथ बहुत सी साहित्यिकनिधि भी वहां से बटार कर लायेथ | जयपुर के सुप्रसिद्ध श्रीगाविन्ददेतजी के मन्दिर में अब भी बंगाल से लाया हुआ विपुल्ल ग्रन्थ-भर्डार खासमोहर में रकखा बताया जाता हे | मिर्जा राजा जयधिहू के समय में कविबर बिहारीलाल (बिहारी सतसई के प्रणेता ) के अतिरिक्त कितने अन्य साहित्यकार इनके दरबार में रहते थे यह स+ कहने की विशेष आवश्यकता नहीं है | कुलर्पात मिश्र इन्हीं के समय के एक प्रख्यात कवि थे। इनके पत्र रामसिह के दरबार में भी कंबियों ओर विद्वानों का खासा जमघट रहता था ओर वे स्वयं हिन्दी संस्कृत के मार्मिक वरिष्ठ विद्वान एवं लेखक थे । सवाई जयसिंह के समय में तो जयपर सभो विद्याओं का केन्द्र बन गया था ओर उसी समय स॑ विद्या के क्षेत्र में जयपर का नाम द्वितीय काशी” के रूप में अद्यावध सुप्रतिद्ध है। इनके पुत्र ईश्वरीसिंह ओर माधबसिह प्रथम के समय में भी थोड़े धाहित्य का निर्माण नहीं हुआ । किन्तु, माघवर्सिह जी के पुत्र त्रजनिधि उपनाम- धारी कविवर प्रतापसिंहजी की साहित्यक्षेत्र में जो अक्षय कीर्ति-कोमुदी समुद्भासित है वह युग-युगों तक अम्लान बनी रहेगी। प्रस्तुत नाटक 'कणकुतूहल' के रचयिता महाकति भोलानाथ ययपि साधवसिह प्रथम के समय में ही जयपर में आ गये थे किन्तु इनके राज्यकाल में उन्हें यहां स्थायी आश्रय प्राप्त हा गया था ओर श्र।ज तक उनके वंशज यहीं पर बने हुए हूँ। सं० १८०० में कवि भात्लानाथ को प्रतापसिहजी ने ही भद्दाइत्रर को उपाधि से विभपषित किया था और इन्हीं के समान अन्य अनेक कवि एवं साहित्यकारों को इनके समय में प्रश्नय प्राप्त हुआ था। कण-कुतूहल नाटक के नायक होन के कारण श्रीग्रतापसिहुजी का जीवन-वृत्त कतिपय शब्दों में नीचे देने क।




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