तारना वाणी | Taran Vaani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त रण-वा णी१८६६३५२००२६६६“[ १७ गुद्द हृष्टी वे दृष्टते, मा ज्ानमयं प्रुवं। गुद्वतत व आराध्य॑, बंदना पूजा विधीयते ॥२८॥ चिदानंद के ज्ञान-गु्णों के, अनुभव में होना तल्लीन । यही एक बन्दन है मच्चः, नहीं बन्द्ना और प्रवीण ॥ शुद्ध आत्म का निमंल मन से, करना सच्चा भाराधन । यही एक बेस पूजा सच्ची, यही सत्य बस अमिवादन ॥ चिदानंद शुद्धाता! के ज्ञान गुणों में तत्बीनता होना यही एक सरूवों बन्द्रना है ओर यही एक सच्ची पूजा । क्योंकि शुद्धत्मा का सच्चे मन से आराघन करना पंडितों ने इसे ही बास्तव में बन्दना या पूजा कही है, अथवा जिनवागी में एसी बन्दना या पृज्ञा कही है अथवा जिनवाणी में एसी वन्‍्दना पूज्ञा करने वाले को ही पंडित कहा ८ | “पंडितों द्वारा की जाने वाली पंडित पूजा” केवल इसी आधार से इसका नाम “पंडित पूजा! श्री तारन स्वामी ने रखा है । मंघस्य चत्र मंपस्य, भावना शुद्धालनां। ममयमारस्य शुद्धस्य, जिनोक्त॑ माध भुवं ॥२९॥ मुनी, आर्यिका श्रावक दभ्पति, भी क्यों करें इतर चर्चा ! निज्ञानन्द-रत होऊर वे भी, करें आत्म की ही अर्चा॥ शुद्ध आत्मा ही बम जग में, सारभूत है हे भाई ! जिन प्रभु कहते, आत्मध्यान ही, एक मात्र है सुखदाई ॥ मुनि, आयिका, श्रावक ओर क्राजिका, याने चतुविध संघ का यही कत्तव्य है कि ये इसी शुद्धात्मा को भावनाओं को भा कर उसके हो गुणों की आराधना करें | ऐसा करने में ही सबका कल्याण होगा । ! भ्री जिनेन्द्र का कथन है कि--संसार में अ्त्मा ही केवल एक सारभूत है और प्राणीमात्र का कल्याण करने वाली पएकगात्र आत्मा की आराधना व पूजा करना है |




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