उत्तरज्झयाणाणि भाग 2 | Uttarajjhayanani Bhag 2

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Uttarajjhayanani Bhag 2  by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्तरकयणं (उत्तराध्ययन) १० अध्ययन १ : इलोक ३२,३३,२४ इलोक ३२ २२-प्रति-रूप में ( घुनि-वेष में ) ( पडिरुवेण ग ) : प्रस्तुत इ्लोक में प्रतिरूप शब्द है और २६वें अध्ययन के ४३वें सूत्र में प्रतिरूपता । इस इलोक की व्याख्या में चर्णिकार ने प्रतिरूप के तीन अर्थ किए हैं). (१) प्रतिरृप--शोभन रूप वाला | (२) प्रतिरूप--उत्कृष्ट वेश वाला अर्थात्‌ रजोहरण, गोच्छुग और पात्रधारी । (३) प्रतिरूप--जिन प्रतिरूपक--याति तीर्थ कर की भाँति हाथ में भोजन करने बाला । इनका प्रकरणगत अर्थ यह है कि मुनि--स्थविर कल्पी या जिन कल्पी--जिस वेश्ष में हो उसी वेश में भिक्षा करे । बृत्ति-काल में इसका अर्थ--'चिरंतन मुनियों के समान वेष बाला'--ही मुख्य रहा है ।* प्रतिरप का अर्थ प्रतिबिम्थ है। वह तीर्थंकर का भी हो सकता है और चिरंतन मुनियों का भी हो सकता है। यहाँ चिरंतन मुनियों के समान वेष वाला--यहू अर्थ प्रासंगिक है और २६।४३ में तीर्थंकर के समान बेष वाला प्रासंगिक है । देखें २९॥४३ का टिप्पण । इलोक ३३ २३-श्लोक ३३: इससे पूवंबर्ती इलोक में “म्य कालेण मक्‍्खए' इस पद द्वारा भोजन-विधि का उल्लेख हो चुका है। फिर भी इस इलोक में पुन: भमिक्षाटन करने की जो बात कही है, उसकी संग्रति इस प्रकार होती है--साधु सामान्यतः एक बार हो भिक्षा के लिए जाए परन्तु ग्लान के निमित्त या जो आहार मिला उससे क्षुधा शान्त न होने पर वह साधु पुनः भिक्षा के लिए जाए। इसको पुष्टि में टीकाकार दशवेकालिक (अ०५ उ०२) के निम्न श्लोक उद्धृत करते हैं--- 40603 8 मै घर ट४ 5 जद तेण न संथरे ॥२॥ तओ कारणमुपन्ने, भत्तपाणं गवेसए । «०2000 श८ ० धवतआ ०२० मद ॥१॥ हस ३३वें इलोक का विस्तार दश्वकालिक ५1२१०, ११, १२ में मिलता है । इलोक ३४ २४-श्लोक ३४ : इस इलोक का प्रथम चरण 'नाइउच्चे व नीए बा'--अर्ध्वमालापहत और अबोमालापहुत नामक भिक्षा के दौषों की ओर संकेत करता है। इनको विशेष जानकारी के लिए दशवेकालिक ५।१।६७, ६८, ६६ देखें। इसी इलोक का दूसरा चरण 'तासन्ने साइदुरओ'--.गोचराग्र गए हुए मुनि के ग्ह-प्रवेश की मर्यादा की ओर संकेत करता है। इसका विस्तार दशवेकालिक ५१1२४ में मित्रता है। तोसरे चरण में भाएं हुए दो शब्द 'फासुर्ण', “परकर्ड 'पिण्ड', का विस्तार दशवेकालिक ८।२३ और ८!५१ में मिलता है । १-उत्तराध्ययन चुलि, पृ० ३९ : पढ़िरुज णास सोमणरुत, जहा पासादीये बरिसणीज्जे अहिरूवे पडिरुवे, रूप रूप ल॒ प्रति यदन्यरृप, तत्रतिरूष, सवधममूतेस्यों हि. ठग पुत्कष्ट, तसदूर्महरण-गोच्छ-पड़िगाहू माताएं, जे वा पाणिपडिशहिया जिणक तेसिं गहणं, तेसि 'जिरूयप्र तिरूपक भव लि, यतस्तेन प्रतिरूपेन । हु हा आल २-क) इृहद वृत्ति पत्र, ४९ : | प्रतिप्रति बिम्ब॑ चिरत्तनमुनीनां यह पं लेन, उमयत्र पतदुग्रहा विधारणात्मकेत ससल त्यघार्सिक बिंलक्षगेण । (ज) सुशतबोधा, पत्र ११।




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