श्री सूत्रकृताड्गम भाग - 3 | Shrisutrakritadgam Bhag - 3

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Book Image : श्री सूत्रकृताड्गम भाग - 3  - Shrisutrakritadgam Bhag - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दृशर्म समाध्यध्ययनंम १३ कर्मधिपाकान एप्ठा श्रत्वा घत्वा था तेभ्योडसदनुष्टानेभ्य भाउद्दति? त्ति निवर्तते; कानि पुनः “पापस्थानानि येभ्यः पुनः ,अवर्तते निवतते था इत्याशह्ृब्य तानि वृशयति-अतिपातत+ प्राणातिपाततः प्राणव्यपरोपणाद्वेतोस्तश्ाशुर्भ शानावरणा- दिक॑ कर्म 'फ्रियते! समादीयते; तथा परांख्य अ्रृत्यादीन, प्राणातिपातादी 'नियो- जयन! व्यापास्यन पापे फर्म फरोति; तुशब्दान्द्रपावादादि् च कुपन कारयंश्थ पापक कम समुशिनोतीति ॥५॥ का 8 दल अप क प भनुमानसे सिंद होता है। फहों (आउट) यह पाठ मिलता है इसका अथे यह है कि- बुद्िमान्‌ पुरुष, अझुम कर्मीका दुःखरूप फ़ठ देख कर या सुनकर अथवा जानकर कर्मेंसे निमत्त हो जाते है। (प्रश्न) वे फौन पापके स्थान.हैं जिनमें प्राणी प्रदत्त होते हैं. अथवा जिनते निधृत्त होते हैँ : (उत्तर) जीवहिंसा करनेसे प्राणी ज्ञानावरणीयः आदि अद्युभ कर्मीको गापता है तथा जो अपने नौकर आादिकों जावहिंसा करने को भाज्ा देता है वह पापकर्म करता है तथा तु शाब्दुते जो झूठ बोट्ता है चोरी करता है मैथुन करता है और परि्ह फरता है अथवा दूसरे से इन फर्मों को फराता है वह पापका सश्य करता है। ५ आदीणवित्तीव करेति पार्व, संता उ एगंतसमाहिसाहु। बुद्धे समाहीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियप्पा ॥३॥ छाया-आदीनह त्तिरपि करोति पाप, मत्वात्वेकान्तसमाधि माहुः । बुद्ध समाधो च रतो विवेके, प्राणातिपातादू विरतः स्थितात्मा । अन्वयार्य-( भादीणवित्तोव पादे करोति ) जो पुदप दीनशत्ति काता है भर्थात्‌ कैगाल भीखा- रीहय धंघा फरता है वह भी पाए फरता है (मत्ताउ एगंत समादि माहु ) यह जानकर तीथकरोनि ए्न्त सम्रायिं का उपदेश झिया हैं। (युदे वियप्पा) दृपलिये विचारवान्‌ धर॒द्धचित पुरुष (धमा- हीय विगेगे रे) समाणि और द्रियेकर्मे रत रद्दे। (्रणातिवाता विरते) एवं प्राणातिपातसे निदृत्त रहे | जो पुरुष कंगाल और भीखारी आदि के समान करुणाजनक घेधा करता है वह भी पाप करता है यह जानकर तीथकरोंने भावसमाधि का उपदेश किया है। अतः विचारशीढ झुद्गचित्त पुरुष भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात से निदृत्त रहे | पदक कापी नहीं जाता तो यह काप्ी में नहीं देखा जाता इससे यद्द सिद्ध द्वोता है कि एक जगह दूसरी जगहपर गतिके बिना कोई वस्यु नहीं प्राप्त होती है। इसप्रकार जब इंम सूस्येको एफ देश दूसरे देश में देखते ६ तब देवदत्त की गति के समान ही सूर्य में भी गतिका अनुमान करते ई क्योंकि सूर्य में यदि गति न द्वोती तो वह एक देशासे दूसरे देशमें कैसे प्राप्त होता: । अतः देवदत्त थादि में -गतिपूर्वक वेशान्तर फी प्राप्ति देखकर सूर्प्य में भ्रत्यक्ष गतिका भनुमान करना सामाम्यतीटष्ट भगुमान है एसीतरद प्रत्यक्ष दी चोर आदिको दुःखका फल भोगते हुए देसकर दूधरे पाषियों का भी परापका फ भोगना जाना जाता हैं। , मत बा




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