भारतीय वाड़मय पर दिव्यदृष्टि | Bharatiy Vadmay Par Divya Drishti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
264
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दिव्यदृष्टि और भगवत् कृपा / 27
समाप्ति तक की वर्ष संज्ञा हुई। 'वर्ष! का अर्थ है वृष से संबंधित। बड्ढ कहा (यूद्ध-
कथा) में यही वत्सराज भी हुआ, वत्सर (बैल), संवत्सर (सांड) आदि भी हुआ 1
लाद करने से नांदी भी हुआ। ऋग्वेद वाले उदीच्यों ने बाद में उसका वर्णत करते
हुए कहा “त्रिधाबद्धो वृषभो रौरवीति ।'
भूमि की यह भक्ति भी भक्त को यथेष्ट सूक्ष्म प्रतीत नही हुई । उसने प्रत्येक
अंशुभाग को भी पुनः साठ-साठ लघुतर भागों में विभक्त किया ओर इसे द्योतित
करने के लिए कलाएँ (महीन घागे) बांधी । आज भी तमिल में 'कला' के तमिल
रूप (जो मूल रूप था) 'कलै' का इसी अथ में ही प्रयोग है और उत्तर भारत में
पोंहचे पर जी लाल कलाओं का समूह (कलाप<-कलावा) बांधा जाता है उससे
हम अपरिधित नही है। इसके बंधने पर ही पोंहचा कलाई कहलाता था जो तमिल
कली का शुद्ध उचचारण है। जो अच्छे अभ्यासी विद्वान् थे वे कले खोल कर भी भूमि
के भाग-प्रभाग बता सकते थे । यही 'कलई खुलना? मुहावरे का अर्थ है, भर्थातू
सुज्ञात हो जाना । ध्यान रहे इसका बर्तनों वाली कलई से कोई संबंध नहीं है। वह
तो उतरती है खुलती नहीं है। अधिक पक्के भक्त कला-द्षेत्र के भी पुन: साठ विभाग
करते थे जिन्हें महीनतर तार बांधकर व्यक्त किया जाता था और विकला कहा
जाता था । विकलाओं के साठवें भाग प्रतिकला होते थे। यों सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम
भक्ति या भजन करते-करते भी अप्नली भक्तजन सतुष्ट नही होते थे । खाना-पीवा
सब छोड़कर भक्ति और भजन में ही लीत रहते थे। उन्हीं भक्तो से प्रसन्न होकर
कहा गया होगा--मद्भवता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि ना रद । मूमि काल-
निर्धारण का आधार भी थी अतः कालिका कहलाई। भारवती होने के कारण
गौरी कहलाई।
यों भगवती की भक्षित का संक्षिप्त आख्यान यही छोडकर भगवान् की चर्चा
करते हैं । हम आरंभ में तीन गोलो की चर्चा कर चुके हैं। इनमें भगवंत्ती के गोले
के अतिरिक्त छोटा गोला भगवान् कृष्ण चंद्र का था और बड़ा गोला भगवान्
“राम का। भगवान् कृष्णचंद्र थे आकाश में विचारण करने वाले “चंद्र! । ये कृष्ण
इस लिए हैं कि पृथ्वी की क्षाकर्पण शक्ति से सदा कृष्ठ रहते हैं भौर उससे
निर्धारित दूरी पर उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। भगवान् कृष्ण चंद्र के भक्तों ने
उनकी भो भक्ति (विभाजन) कर डाली। भतित का आधार उसी 'योजन' को
माना जिसका भगवती के प्रसंग में उल्लेख कर चुके हैं और जो भू-व्यास का
सहल्ांश है | द्रविड ऋषि ने चंद्र के व्यास को 273 यौजन से कुछ अधिक पाया ॥
उसे दस-दस योजनी की दूरी पर विभक्त किया। यों सत्ताईस नक्षत्र तो पूरे हुए
अट्ठाईसवां आधे से भी कम रह गया। उसे अभिजित् नाम दिया गया। वैदिक
वबाइमय में क्वचित् नक्षत्र संख्या अट्ठाईस मानी गयी, ववचित् सत्ताईस। आज
कल कुल नक्षत्र सत्ताईस ही माने जाते है पर अभिजित् की उपस्थिति मध्याह्ल के
User Reviews
mahesh
at 2019-11-16 17:54:51"THE BEST BOOK :REALY A DIVYA DRISHTI ON OUR HINDU VANGYAMAY"