बड़े बाबू का रथ | Bade Babu Ka Rath

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Bade Babu Ka Rath by सुरेश कुमार - Suresh Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 27, ) स्थिति में मैंने दफ्तर में ही दो कवितायें.लिख डालों । देर :में पली+ नहीं ५ ५5 र0ईक० 3 नहीं थी, अफसर था । उसने मुर्क खूब लताड़ा। जा फिर एक दिन वह प्रतिद्वन्दी घर पर भा धमका। मेरे प्रस्ताव पर विचार किया या नही ।/ मैं कुछ याद करने लगा, पर कुछ याद नहीं आया। 'कँसा प्रस्ताव 1” उसका चेहरा प्रसन्‍तता से खिल उठा। उसने मुझे बांहों में भर लिया। “आह ! साथी, तुम तो महान्‌ व्यक्ति की दुसरी अहर्ता की पूर्ति भी करते हो ।*''आओ। महान्‌ बनने का अवसर श्यर्थ मत गंवाओ ।! 5 मैंने हथियार डाल दिए । कविताएं बहुत लिखी-- एक न छपी । पत्नी बेचारी पतिब्रता । मैं यदि तवला बजाने लगूं, तो उसे भी सराहेगी, लेकित “पत्रिकाओं के सम्पादक ! वे मेरी कविताओं को कभी छपने योग्य नही समझक्ेगे। महान्‌ कवि बनने से अच्छा है, केवल “महान” बना जाए ।“““बाद में कवि भी बना जा सकता है। यह सोचकर मैंने कहा, मु तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है, अपना मन्तव्य कहो“! ! 'किपती भी कवि के महान कवि होने की सम्भावना आजकल बहुत कम रह गई है। इसका एक कारण तो यह है कि पश्चिकाओं में कविता के लिए बहुत कम पृष्ठ होते हैं । कहानी, लेख या संस्मरण अधिक छप्ते हैं। विज्ञापन शुल्क चूकाकर कविता छपवाने का जुगाड़ हो तो और बात है। कवि-म्रम्मेलन के भाम पर जो तमाशा आयोजित किया जाता है, उसमें भी लतीफ्रेबाज मसखरे ही बाजी मार ले जाते हैं | शुद्ध कबि वहां भी मात खाता है। अब क्‍या बचा, रेडियो'''टेलीविजन' “और फिल्म । त्तो यदि आप मे इतना दम है तो बात दूसरी है अन्यथा । उसके प्रवचन की भूमिका ही इतनी भयंकर थी कि मुझे गँस बनने बे होने लगी। मैंने कहा कि, “तुम असली बात पर थयों नही | है




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