श्रावक प्रतिक्रमण | Shrawak - Pratikraman

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Shrawak - Pratikraman by नन्दनलाल जी - Nandanlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्रावक-प्रतिक्राण २१ गेडस्यासयंति कथयंति विचारयति, संभावयंति च मुहुमुहुरात्मतत्तम ॥ ते मोध्मक्षय मनुनमनतसो रूप, ध्वित्र प्रयांति नवकेवललब्धिरूपम्‌ ॥ १ ॥ भांवाणै--जो आत्मरवका निरंतर अभ्यास करते हैं, प्रठन पाठन फरते हैं, आत्मतत्वका उपदेश करते हैं, शांतिपूर्नक निर तर विचार करते हैं, स्थ हृइयमें मनन करते हैं, वार वार उसी तच्पका चिंतवन फरते हैं, ध्यान फरते हैं वे अविनाशीक मद्वान अनन्तसीरय वाधारहित मोक्षसुखकों शीघ्र हो प्राप्त कर लेते हैं। आत्मतत्वका विचार फरनेवार्लोकों ही नव फेयल- लब्वियां स्वयमेद प्राप्त हो जाती हैं॥ १॥ सामयिकके समय क्या करना चाहिये ? सम्मामि सब्बजीदाणं सब्बे जीवा समतु में । मेत्ती में सब्बभूदेस पर मज्ज़ ण केणवि ॥ भावार्ण--सामायिक फरनेके समय सबसे प्रथम सम्रस्त जीवोफे साथ वेस्भाव त्याग करनेके लिये, परिणार्मोर्में विशेष विशुद्धि फरनेकेलिपे निष्कपटभावसे निस्पृद होकर सव जीवोकों क्षमा फरे-मनसे फपाय भावोंका परित्याग करे तथा समस्त ज्ीवोंसे भी क्षमा फरनेकी याचना करे। समस्त जीवीके साथ मैन्नोभावनाकी प्रकट करे और किसी ज्ञीवके साथ बेरभाव नहीं एकखे ॥ २॥




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