श्रवकाचार भाग 1 | Shravakachar Vol I

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Shravakachar Vol I by नन्दनलाल जी - Nandanlal Ji

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नन्दनलाल जी - Nandanlal Ji

Add Infomation AboutNandanlal Ji

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
श्रावकाचार 1 [ ६६. जीवका छघ्ररण-चेठना है । ' चतना लक्षणों जीव: ऐसा छागम है । चेतना ज्ञान दरशनकों कहते हैं. भर्यात्‌ जिसमें जान दूशन दो चढ़ जीव है | छात्मा है | यद शीव संसारी अव- स्थामें कर्ता है, भोक्ता है, भपने घरीरके बरावर है, सुर्गीक है ओर सिंद अवस्थामें अमूर्ती, दै-शुरू ज्ञान झुद्ध दर्नमयों है ! जीव दो प्रकारके होते हे-सिद्ध और संप्ारी। सिख जीवों परमात्मा कहते दें और वे समस्त कर्मासे रत अछ्टगुण सहित होते हैं । संतारी नीव-घने प्रकार हैं । मामान्यतासे दो सेद रूप ैं-त्रस गर स्थावर! दो इंद्रियसे थादि ठेकर पंचेट्रिंय परयेत त्र्त हैं । थर जिनके एक शपशन (शरीर) इंद्रिय हो वे स्थावर हें । इ्े भेद मभेद होनेसे संसारी नीव अनंत पकार हैं | नीवकी पद़िचान सामान्य रीदिसे यदद है कि जिसके ज्ञान हो-भो नानता हो, दशन हो-देखता हो | इर्द्रिंय हो ( घरीर, नीम, नाक, आंख सौर फ्ान इनमें लगे हुए आत्म प्रदेश मिपसे यह सच प्रकार ज्ञान कर सके उतको इंट्रिय कहते ईं ) लाये . हो । इवासोधवाप्त हो गौर घरीर वचन मन ) हो बढ़ नीच है । जो क्रिया ( इलनचठन ) कर सक्ता दे, सुख दुःख अनुभव कर सक्ता है, किप्ती शरीरके आाइर स्थिर रद सक्ता है, इद्धिय सर मन द्वारा समस्त कार्य करता है, जन्म मरण रूप पर्याय ( झवध्था, दालत ) चदरुता रहता है वह संसारी शीव है । जीव निंत्य दै | नहुतसे भोले मनुष्य नीवकों नहीं मानते, यह उनका मानना मिथ्या है । क्योंकि शरीरके सदर ऐसी शक्ति होना श्स-




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now