श्रावकाचार भाग १ | Sravkachar Vol. - I

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Sravkachar Vol. - I by नन्दनलाल जी - Nandanlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंधवकांचार । ` [ १ सीरः यविनाभावी संचंधके बिना अनुमान नहीं हो सक्ता [' उसमें भागासिद्ध হিজল अनेकान्तिक दृषण होनेसे' वह चाधित्त हो नाता & ¦ णागमसे हैश्वरकती सिद नहीं द्वोता क्योंकि सयम ईइवर कृत है और भागमसे ईश्वरकर्ता |ये परस्पर अन्यो- न्‍्याश्रय दूषण भागी है | उपमानादि प्रमाण इदवरको तौ सिद्ध. नहं कर सक्ते क्योकि ईक्वर समान दुरा दैरवर र्वा कल्पनाः करना हास्यकारक बाव है और पमान प्रत्यक्ष ज्ञान लिये होता है ऐसा दूसरा ईश्वर दीखता भी नहीं | इस खियि शद्रे कती हर्ता कहना दैइवरके स्वरूपमें धोखा देना हैं। ईश्वर ठो सवेह वीतराग ओर हिलोप्देगी दी हयो स्का ई ॥ ७-< ॥ अतीद्रिय पदाथोका उपदेश दिना सर्वेज्ञके नहीं दो पत्ता, प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणसे विरोघरद्दित, संशय, विपयेय ओर अनष्य-- : बसाय रहित, सत्य सत्य पदार्थाका स्वरूप स्वेज्ञ विना हो नहीं पत्ता | ओर सच्चे शास्रक्रा उपदेश विना आप्तके प्िज हुए नहीं होता है । भावा्थे-आाप्त (प्तज्चे देव) की सिद्धि सच्चे शासत्रसे होती दै \ ओर सच्चा छार्र सर्चेज्ञ द्वारा प्रतिपादन किया हुआ होता है ॥ ९. ॥ सच्चा शास्छ्- सर्वेज्ञ-( वीतराग ) छाशा कहा हुआ হী । प्रमाणभूत हो (त्यक्ष, परोक्ष, सुक्ति, जादिसे विरोध रहित हो) वही' सचा शाख दै, आयम है। क्योकि वीतराय सर्वेशके किसी परक्ारका राग और ইন नहीं है जिससे वह अन्यथा प्रतिपादन करें | जिपकी कुछ स्वाथे होता है, राग होता है, डेप होता है, जान হীরা हे, कपट दत्ता है, वह पुरुष अन्यथा भ्री कह क्का & |




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