छाया मत छूना मन | Chaya Mat Chhuna Man

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- एक दिन माँ रसोईघर में दाय दना रही थी। पड़ोस के ठेकेदार रणधीर चाचा अन्दर चारपाई पर बैठे थे । उन्होने सामने खड़ी वस्सो-- बसुधा को जबरदस्ती खीचकर अपनी गोद में विठछ्ा लिया और फिर उसे भीचकर चूमने लगे तो माँ बिगड़ पड़ी 1 चाय की केतली हाथ से छूटकर नीचे गिर गयी । 'तैनूँ शर्म नई आंदी....।' रणधीर चाचा पहले सकपकाये-खिसियाये, फिर कुछ एककर व्यंग्य- बाण छोड़ते हुए बोले “शरम तो तुम्हें आनी चाहिए थी परवीन ! अपना चरित्तर देखो ! फिर देना दूसरों को दोप....”* इतना कहकर यह चले गये 1 माँ सुन्न रह गयी ! उसी समय उसने खिड़कियाँ बन्द कर दो । दरवाज़े बन्द कर दिये....। बहू दिन था कि यह दिन ! अब घर में कोई भी आता न था। जिसे काम होता बहू जिड़की से ही बातें करके चला जाता 1 इसके कुछ ही दिनों बाद माँ ने हमेशा के लिए लुधियाना छोड़ दिया। दोनों बच्चियों को छेकर दिल्ली आ गयी और यहाँ दूसरा विवाह रचा लिया 1 छा पर यह दूसरा विवाह भी रास न आ पाया । दूसरे पिता इतने भोछे थे कि दौन-दुनिया को इन्हें कुछ भी खबर मृथी। माँ को एक सहारा चाहिए था, संसार को निगाहों से बचने के लिए । लेकिन भह सहारा भी मृगतृष्णा-सा छग रहा था। यहाँ आकर पिछली सारी जिन्दगी को उसने भुला दिया था। घर तक़ हो सीमित संसार था अब उसका और पति था--परमेश्वर ! ते छना मन बछ




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