पद्मपुराणम भाग 2 | Padma Purana Bhag 2

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Padma Purana Bhag 2  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ पश्मपुराणे कुकिजातो5पि पुत्रस्य य कृत्य कुरुते न ना । अपुत्र एवं कान्तेडसौ जायते रिपुरेव वा ॥१४४॥ तब सोध्यमपुत्राया सति पुत्रों भविष्यति 1 अन्तयानेन कि कृर्यमत्र वस्तुनि शोमने॥$४७॥ एवमस्विति सभाष्य देवा सूतिणृह गता । प्रभाते सुतजन्मास्यास्तुएया छोके प्रकाशितम्‌ ॥4४६॥ ततो जन्मों सवस्तस्य पुरेस्मिन्‌ रथनूपुरे । सप्रवृत्त समागसच्छुद्‌ विस्मिताशेपबान्धव ॥1४७॥ रबकुण्डलभानूना मण्डलेन यतो बृत । प्रभामण्डलनामास्य पितृभ्या निमित तत ॥१४८॥ अर्पित पोषणायासौ धाश्या लीछामनोहर । सवोन्त पुरछोकस्य करपद्ममधुबत ॥१४ध॥ बिदेहा तु हतते पुत्रे कुररीववक्ृतस्वना । बन्धूनपातयत्‌ सवान्‌ गग्भारे शोकसागरे 1१७०४ परिदेवनमेव व चक्रे चक्राहतेव सा । हा वश्स केन नातोईस मम दुष्करकारिणा 1६७१॥ विधृणस्य कथ तस्य पापस्य प्रस्तौ करी । अज्ञान जातमात्र खा गृहीतु म्रावचेतस ॥$७२॥ परिचमाया इवाशाया सध्येवेय सुता मम । स्थिता स तु परिप्राप्तो मन्दाया पूर्व खुत ॥1५३॥॥ भ्रुव भवान्तरे को5पि मया बाछो वियोजित । तदेव फलित कर्म न कार्य बाजवजितस्‌ ॥६५४॥ भारितार्मि न कि सेन पुत्रचोरणकारिणा । पुरु प्राप्तास्मि यदुदु ख समागत्यादवेशसमं ॥१७७ा। इति त॑ कुव॑तीमुच्चेबिहलं परिदेवनम । समाश्वासयदागत्य जनको निगदल्निदम 111५६॥ प्रिये मा गा पर शोक जीवयेव शरीरज ” । हत केनाप्यसो जीवन द्रच्यसे प्रुवमेव हि 11$५७॥ अनाथास ही प्राप्त दो गया है ॥१४३॥ जो मनुष्य कुक्षिसे उत्पन्न होकर भी पुत्रका काये नहीं करता है. हे प्रिये! बह अपुनर ही है अथवा शउ दी है ॥१४४। हे पतित्नते ! तुम्हारे पुत्र नहीं है. सो यह तुम्हारा पुत्र हो जायगा । इस उत्तम बस्तुके भीतर जानेसे क्या प्रयोजन है. ? ॥१४५॥ तद्नन्तर ऐसा ही हो इस प्रकार कहकर रानी प्रसूतिकागृहमे चली गई और प्रात काछ होते ही इसके पुत्र जन्मका समाचार छोकमे बडे हपसे प्रकाशित कर दिया गया ॥१४६॥ त्दनन्तर रथनू पुर नगरमे पुत्रका ज-्मोत्सव किया गया । इस उत्सवम आश्रयेचक्ित होते हुए समस्त भाई- बाधु रिश्तेदार सम्मिलित हुए ॥१४७॥ चूँकि वह बालक रक्षमय कुण्डलोकी किरणाके समूहसे घिरा हुआ था इसलिए माता पिताने उसका भामण्डछ नाम रक्खा ॥१४८॥ अपनी छीलाआसे मनको हरनेवाछा तथा समस्त अन्त पुरके करकमछोम अ्रमरके समान सचार करनेवाला वह घालक पोपण करनेके लिए धायको सौपा गया ॥१४६॥ इधर पुत्रके हरे जानेपर कुररीके समान विछाप करतो हुई रानो विदेहाने समस्त वन्धुआ को शोकरूपी सागरमे गिरा दिया ॥१४०॥ चक़्से ताड़ित हुईके समान वह इस प्रकार विछाप कर रही थी कि हाय वत्स ! कठोर काये करनेवाल्य कौन पुरुष तुके हर ले गया है ? ॥१५१॥ जिसे उत्पन होते देर नहीं थी ऐसे तुक अबोध बालकको उठानेके लिए उस निर्द॑य पापीके हाथ कैसे पसरे हवागे ? जान पडता है! कि उसका हद्य पत्थरका बना होगा ॥१५२॥ जिस प्रकार पश्चिम दिशामे आकर सूर्य तो अस्त हो जाता हे और सन्ध्या रद्द जाती है. उसी प्रकार मुझ अभागिनीका पुत्र तो अस्त हो गया और सध्याकी भांति यह पुत्रो स्थित रह गई ॥१४३॥ निश्चित ही भवा-्तरमे मैंने किसी बालकका वियोग किया होगा सो उसी करमेने अपना फल दिखाया है क्योकि बिना बीज के फोई कार्य नहीं होता ॥१५४॥ पुत्रकी चोरी करनेवाले उस दुध्टने मुझे मार हा क्या नहीं डाला | जब कि अधमरो करके उसने मुझे बहुत भारी दु ख प्राप्त कराया है. ॥१५५॥ इस प्रकार विहल होकर जोर जोरसे बिछाप करती हुई रानीके पास जाकर राजा जनक यह कहते हुए उसे समझाने लगे कि हे प्रिये * अत्यधिक शोक मत करो, तुम्द्वारा पुत्र जीवित ही है, कोई उसे हरकर ले गया १. जन ब०1२ अन्तयानेन म० ज० | ३ पापाणहृदवत्य | ४ अर्धभरणम्‌। ५ शरीस्पे म०।




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