चार आँखों का खेल | Char Ankhon Ka Khel
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चार पझ्राँधों का फेल श्र
दोपहर का वक्त था। चिलचिलाती घूप पड़ रही थी । सामने खाली
मैदान में दो-चार गाय-मेंसें घास चर रही थीं। उस निस्तव्ध दुपहरी
में एकाग्रचित्त होकर लिखने की सोच रहा था। अचानक विचारों का
सूत्र टूट गया ।
“जाओ, निकलो, निकलो यहाँ से--
उनके बावर्ची जोसेफ को पहचानता था मैं । इंडियन क्रिश्चियन
था , डो'सा साहब को बड़ा प्यारा था जोसेफ । अच्छा खाने का शौक
था साहब को । मैंने देखा था ड्यूटो पर जाते समय साहब जोसैफ को
बताकर जाते थे कि उनके लिए क्या-क्या बना कर लाना था। जिस
ओर भी साहब गये होते उसी ओर की पैसेंजर ट्रेन के गार्ड के हाथ में
साहब का टिफिन कैरियर पकड़ा आता । यथास्थान गार्ड उतार देता 1
यही चलन था। सारे गाडं-ड्राइवरों का खाना इसी तरह दूसरी
ट्रेन के गा पहुँचाते थे । इस काम में एक्सपट था जोसेफ । इसके बनाये
खाने की कभी बुराई नही सुनी थी डी'सा साहव से ।
जोसफ की बड़ी इज्जत करते थे वह्। जिस दिन साहब घर पर
खाना खाते थे, जोप्तेफ स्वयं खड़ा रहकर परोसता । जिस दिन साहब
परलोक सिधारे, खूब रोया था वह। केवल जोसेफ ही नही सारे नौकर-
चाकर रोये थे । बहुत चाहते थे वह लोग साहव की । उसी बावर्ची को
मेमसाहब इस तरह घमका रही थी, घर से निकल जाने को कह रही
थी | बड़ा आश्चर्य हुआ मुझे ।
बाहर निकल कर देखा घर से बाहर निकल कर बगीचे में खड़ा
था बह |
मेम साहब चिल्ला रहो थी--भागो, भाग जाओ--
जिस जोसेफ को कमी ऊँचा बोलते नही सुना था वही गला चढ़ा-
कर बोला-मेरी तनख्वाह दे दो पहले, तब जाऊँगा--
--नही, नही देती तनख्वाह, कर ले जाकर जो करना हो--
+-मैं तनख्वाह लिये बिना नहीं जाऊंगा | पहले मेरा हिसाब कर
दीजिये ।
मेम साहब भी गुस्से से आग वबूला हो रही थी ।
घोली-क्या ? तेरी यह हिम्मत, मेरे सामने जुबान चला रहा है ?
में कैसे मौ तनख्वाह नहीं दूँगो। देखूं क्या करता है तू-महीने के
आखोर में आकर ले जावा-- सन््मक..ड
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