आवश्यक सूत्र | Avashayak Sutra

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Avashayak Sutra by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वियोग, लाभ-अलाभ -ये सभी कर्मोदयजन्य विकार है। मेरा इनके साथ वस्तुत कोई सम्बन्ध नही है। इस प्रकार विचार करके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मतत्त्व को प्राप्त करता ही भाव-सामायिक है। आचाये नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में कहा है-परद्रव्यो से निवृत्त होकर जब साधक की ज्ञानचेतना आत्मस्वरूप मे प्रवृत्त होती है, तभी भाव-सामायिक होती है । राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ भावापत्न आत्मा सम कहलाता है। उस सम से गसन करना भाव-सामायिक है । आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने भाव-सामायिक पर विस्तार से चिन्तन किया है। उन्होने ग्रुणनिष्पन्न भाव-सामायिक को एक विराट नगर की उपमा दी है । जेसे एक विराट नगर जन, धन, धात्य आदि से समृद्ध होता है, विविध वनों और उपवनो से अलक्ृत होता है, वेसे ही भाव-सामायिक करने वाले साधक का जीवन सदगुणो से समलक्ृत होता है । उसके जीवन में विविध सदृगुणो की जगमगाहट होती है, शान्ति का साम्राज्य होता है । आचारय जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक आवश्यक को आद्यमगल' माना है। जितने भी विश्व में द्रव्यमंगल है, वे सभी द्रव्यमगगल अमगल के रूप में परिवर्तित हो सकते है, पर सामायिक ऐसा भावमगल है जो कभी भी अमगल नहीं हो सकता । समभाव की साधना सभी मगलो का मूल केन्द्र हैं। भ्रनन्‍्त काल से इस विराट विश्व मे परिभ्रमण करने वाला आत्मा यदि एक बार भी भाव-सामायिक ग्रहण कर ले तो वह सात-श्राठ भव से अधिक ससार में परिभ्रमण नही करता । सामायिक ऐसा पारसमणि है, जिसके सस्पश् से अ्रनन्तकाल' की. मिथ्यात्व आदि की कालिमा से आत्मा मुक्त हो जाता है । सामायिक के द्रव्य-सलामायिक और भाव-सामायिक ये दो मुख्य भेद है। सामायिक ग्रहण करने के पूर्व जो विधि-विधान किये जाते है, जैसे सामायिक के लिए आसन बिछाना, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि धामिक उपकरण एकत्रित कर एक स्थान पर अवस्थित होना, यह द्रव्य-सामायिक है। द्रव्य-सामायिक में शासन, वस्त्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, माला आदि वस्तुए स्वच्छ और सादगीपूर्ण होनी चाहिये, वे रग-विरगे न होकर श्ेत्त होने चाहिये । श्वेत रण शुक्ल और शुभ ध्यान का प्रतीक है । आधुनिक विज्ञान ने भी श्वेत रग को शान्ति का प्रतीक माना है। सामायिक में न गन्‍्दे और वीभत्स धर्मोपकरण रखने चाहिए श्र न चमचमाती हुई विलासितापूर्ण वस्तुएँ ही। भाव-सामायिक वह है जिसमे साधक आत्म-भाव मे स्थिर रहता है । सामायिक मे द्रव्य और भाव दोनो की श्रावश्यकता है । भावशुन्य द्रव्य केवल मुद्रा लगी हुई मिट्टी है, वह स्वर्णमुद्रा की तरह वाजार मे मूल्य प्राप्त नही कर सकती, केवल बालकों का मनोरजन ही कर सकती है। द्रव्यशुल्य भाव केवल स्वर्ण है, जिस पर मुद्रा अकित नही है । वह स्वर्ण के रूप मे तो मूल्य प्राप्त कर सकता है किन्तु मुद्रा के रूप मे नही । द्रव्ययुक्त भाव स्वर्ण-मुद्रा है। वह अपना मूल्य रखती है श्ौर श्रवाध गति से सर्वत्र चलती है । इसीलिए गावयुक्त द्रव्य-सामायिक का भी महत्त्व है । सामायिक के पात्र-भेद से दो भेद होते है--१ गृहस्थ की सामायिक और २. श्रमण को सामायिक |“ पहस्थ की सामायिक परम्परानुसार एक मुहर्त यानी ४५ मिन० की होती है, श्रधिक समय के लिए भी वह अपनी स्थिति के अनुसार सामायिक ब्रत कर सकता है। श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिए होती है । 3००७. ९. आदिमगल सामाइयज्मयण ।”” “ सव्वमगलनिहाण निव्वाण पाविहित्ति काऊण सामाइयज्मयण मग्रल भवति । -““आवश्यकचूणि 5 आवश्यकनिय क्ति, गाथा ७९६ [२४ ]




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