स्तुतिविद्या | Stutividya

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Stutividya  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना 1 स्तवन और अराधनसे जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी चूद्धि और आत्माकी चिशुद्धि होती है--जेैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है--ततच्र फिर कौन काये है जो अटका रह जाय ९ सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त दोते हैं, भक्त जनोंकी मनो- कामनाए पूरी होती हैं, और इसलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि “हे भगवन्‌ आपके प्रसादसे मेरा यह कार्य सिद्ध होगया, जेसे कि र सायनके प्रसादसे आरोग्यका प्राप्त होना कह्य जाता है । रसायन औषधि जिस प्रकार पना सेबन करनेवालेपर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई काये हीं सिद्ध करती है उसी तरह बीतराग भगवान्‌ भी अपने सेवकपर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्‍नताके फलस्वरूप इच्छापूवचक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते हैं। प्रसन्‍नतापूर्वक सेचन- आराधनके करण ही दोनोंमें--रसायन और वीतरागढ़ेवमें--- प्रसन्‍नताका आरोप किया जाता है और यह अलंकंत भाषाका कथन है। अन्यथा दोनोंका काये वस्तुस्वभावके वशबवर्दी, संयोगोंको अनूकूलताकों लिये हुए, स्वतः होता ६०-उप्षमें किसीकी इच्छा अथवा प्रसन्‍नतादिकी कोई बात नहीं हैं। यहाँ पर कमसिद्धान्तकी दृष्टिसे एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि, संखारी जीव मनसे वचनसे या काय से जो क्रिया करता है उससे आत्मामें कम्पन (हलन-चलन) होकर दृव्यकमरूप परिणत हुए पुदूगल परमाणुओंका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'आखव” कहते हैं । मन-वचन-कायकी यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कमंका अखव होता है | तदनुसार ही बन्ध हेपता है। इस तरह कम शुध-अशुभके भेदसे दो भागोंसें चैंटा रहता है। १ “पुशयप्रभावात्‌ कि कि न भवतिः--“पुण्यके प्रभावप्ते क्या-क्या नहीं द्वोताः देसी लोकोक्षित भी प्रसिद्ध है । जी बच ली आम जी आज आज




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