संस्कृत व्याकरणम | Sanskrit Vyakaranam

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Sanskrit Vyakaranam by हरिदत्त शास्त्री - Haridatt Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१] संस्यृतव्यायरणे हरणम्‌ अनियतलिज़ास्तु लिज्रमानाधिक्यस्य । तट. । तटी । तटमू । परिमाण- भात्रे, द्रोणो प्रीहिः | द्रोगरूप यत्परिमाण तत्परिच्छित्रों ब्रीहिरित्यर्थ । प्रत्य- यार्थे परिमाणे प्रद्ृत्ययों3भेदेन ससर्मेण विशेषणम्‌ प्रत्ययाथंस्तु परिच्छेद्यपरि- के इस नियत बर्थ कौ प्रकट वरने के लिये भी विभक्ति लगाती पदती है, क्योकि संस्कृत में पद का ही प्रयोग क्या जाना है [नापद प्रगुझ्जीत तथा ने वेवला प्रद्धत्ति प्रयोक्तव्या म वेवल प्रत्यय ) और सुबन्त या तिइन्त वो ही पद वहते हैं (सुप्तिह-त पद्म) । प्राठिपदिवार्य में भ्रथमा विभक्ति होती है। जो शाद अनिज्ध हैं अर्थात्‌ विस्ती लिड्भ का बोध नही कराते अथवा जो नियत सिद्ध बाते हैं अर्थात्‌ जिनवे अर्थ के साथ-साथ लिज्भ का बोध भी नियत रूप से हो जाता है, वे ही इसके उदाहरण हैं। जैसे--उच्चंस, नीचेतू ये अलिज्ञा अव्यय शब्द हैं। इनमे प्रथमा विभक्ति होकर उच्चैस + सु+सु लौप (अव्ययों से सुप्‌ का लोप हो जाता है) और पद हो जाने से स्‌ को वित्तग उच्चे आदि रुप होते हैं ।& हृष्ण शब्द से पुत्लिज्ञ की 'श्री' गब्द से स्त्रीलिज्न वी तथा 'ज्ञान! शब्द से नपुसत्र लिज्न वी तियम से प्रतीति होती है । अत ये नियतलिज्भ के उदाहरण हैं। इनसे प्रथमा विभक्ति होर/ कृष्ण » नी: तथा ज्ञानमभ्‌ झूप होते हैं । ्क लिज्भूमाताधिक्ये---प्रातिपदिवार्थ वे बिना केवल लिझ्ड आदि की प्रतीति तो होती नही अत लिज्लमात्र का अधिस बोध करा) के लिये प्रथमा होती है यह अर्थ समझना चाहिये । अतियत लिज्ड वाले शब्द इस के उदाहरण हैं। जैमे--तट , तदी, तटम्‌ ये शब्द 'बितारा' अर्थ के साथ-साथ ब्रमश पूंटिवद्ध आदि का भी बोध कराते हैं, जो इनका नियत अर्य नही । दट शदद अनियत लिड्ढो बाला है, इसका निमत लिज्न एक नही । कभी पुँल्विज्ञ कभी स्प्रीज्िद्ञ, कभी तपुसवर्तिद्ध हो जाता है। इस प्रवार (तट ' आदि शब्द का नियत अर्थ तटत्व (ज्रिनारा) है। उससे अधिक पस्त्व थादिवा ज्ञान भी यहाँ होता है। अत ये लिज्ञमात्राधिक्य वे उदाहरण हैं । यहाँ प्रातिपदिवार्थ से लिड्भमात्र अधिक होने पर प्रथमा विभक्ति होती है। परिमाणपात्राधिवपे--[उपर्युक्त रीति से) परिभाणमात्र अ्रध्िवः होने पर प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे द्रोणों ब्रीहि -द्रोगम्ष जो परिमाण उसमे मापा गया ब्रीहिं, यह अर्थ है। 'द्ोण एक परिमाण (माप) का ताम है। यदि यहां द्वोण ' शब्द में प्रातिपदिवार्थ में प्रथमा विभक्ति छोप्री तो 'द्रोण रूप जो परिमाण उसमे अधिान्त ध्रोहि' यह भर्य प्रतीत होता । क्‍यों डर पहाँ जो परिमाण है वह नाम (प्रात्तिपदिव ] दा अर्थ होता, और नियम यह है दि समान विभर्ति वाले नाम पद के अथों वा अल िल-जन्‍नशञतचत्7(००छत्त+5 ७७१४ नुक तल +-3३४६...3._-_.२ ९-२६ ०८-41 भ्रव्याकरण वे अनुसार अव्यय श्दों से भी प्रथमा विभक्ति (आती है बिन्चु उसवा लोप हो जाता'है । विभक्ति लगने पर ही अव्यय शद पद (सुबन्त) बहलाते होते ह् हैं और प्रमोग वे योग्य होते हैं । अव्ययादाप्सुप २1४5२॥॥ दे




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