अमृत पुत्र | Amrit Putra

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Amrit Putra by ज्ञान भारिल्ल - Gyan Bharill

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लवणप्रसाद का स्वर सुनकर कुमारदेव कुटिया के द्वार पर भा खड़े हुए थे । उन्हें लेकर वे फिर भीतर चले गए कुछ फल और भोजन एक सादी थाली में सजे-रखे थे। साफ- सुथरे लोटे और एक बड़े-से कांसे के कटोरे में जल भरा था। कुमारदेव ने लवणप्रसाद के हाथ मुंह धुलाए भौर थाली उनके सामने करके कहां---- “भोजन कर लो बापू ! चुपचाप ही लवणप्रसाद ने जल्दी-जल्दी खा-पी लिया । इस क्रिया से फुरसत पाकर आचमन करके वे फिर अपने आसन पर आ बैठे । इसे बीच कुमारदेव ने स्थान को स्वच्छ कर दिया था | स्वस्थ होकर बठ जाने के बाद कुमारदेव ने मन्द पड़ गये दीपक की लो को ज़रा-सा उकसाया और पूछा-- “राजगढ़ से क्या समाचार लाए बापू ! महाराज का स्वास्थ्य तो ठीक़ है न ? आप कुछ उत्तेजित दिखाई देते हो ? 'हूं“*****'हाँ देव ! बात ऐसी ही है । सोलंकी की जगाकर आया हैँ आज । और सोलंकी जागा है तो लवणप्रसाद का भमेला भी बढ़ गया है ? “सो कंसे बापू ! यह अनहोनी कंसी सुना रहे हैं आप--महाराज अपने भोग-विलास को छोड़ सकेंगे ??' “नहीं छोड़ गे केसे ? आखिर किसका रक्‍त है उनकी नसों में ? वनराज, मुलराज ओर सिद्धराज जयसिंह के चौलुक्य वंश का ही न ! , देव, आज सोलंकी की आँख खुल गई है । अब गुजरात का स्वरूप बदलकर रहेगा। लेकिन मैंने कहा, मेरा कमेला बढ़ गया न ! महाराज का कहना हैं कि में पाटन आकर ही रहँ और पाटन की सारी सत्ता अपने हाथ में लू--मुझसे यह सारी कँफट भला होगी ?” “क्या कहते हो बापू ! इसमें झकट क्या है ? अब भी तो दिन- रात आप खटते-खपते हो, लेकिन महाराज का ध्यान नहीं है तो परिश्रम २८]




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