अमृत पुत्र | Amrit Putra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
387
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लवणप्रसाद का स्वर सुनकर कुमारदेव कुटिया के द्वार पर भा खड़े
हुए थे । उन्हें लेकर वे फिर भीतर चले गए
कुछ फल और भोजन एक सादी थाली में सजे-रखे थे। साफ-
सुथरे लोटे और एक बड़े-से कांसे के कटोरे में जल भरा था।
कुमारदेव ने लवणप्रसाद के हाथ मुंह धुलाए भौर थाली उनके सामने
करके कहां----
“भोजन कर लो बापू !
चुपचाप ही लवणप्रसाद ने जल्दी-जल्दी खा-पी लिया । इस क्रिया
से फुरसत पाकर आचमन करके वे फिर अपने आसन पर आ बैठे । इसे
बीच कुमारदेव ने स्थान को स्वच्छ कर दिया था |
स्वस्थ होकर बठ जाने के बाद कुमारदेव ने मन्द पड़ गये दीपक
की लो को ज़रा-सा उकसाया और पूछा--
“राजगढ़ से क्या समाचार लाए बापू ! महाराज का स्वास्थ्य तो
ठीक़ है न ? आप कुछ उत्तेजित दिखाई देते हो ?
'हूं“*****'हाँ देव ! बात ऐसी ही है । सोलंकी की जगाकर आया
हैँ आज । और सोलंकी जागा है तो लवणप्रसाद का भमेला भी बढ़
गया है ?
“सो कंसे बापू ! यह अनहोनी कंसी सुना रहे हैं आप--महाराज
अपने भोग-विलास को छोड़ सकेंगे ??'
“नहीं छोड़ गे केसे ? आखिर किसका रक्त है उनकी नसों में ?
वनराज, मुलराज ओर सिद्धराज जयसिंह के चौलुक्य वंश का ही न !
, देव, आज सोलंकी की आँख खुल गई है । अब गुजरात का स्वरूप
बदलकर रहेगा। लेकिन मैंने कहा, मेरा कमेला बढ़ गया न ! महाराज
का कहना हैं कि में पाटन आकर ही रहँ और पाटन की सारी सत्ता
अपने हाथ में लू--मुझसे यह सारी कँफट भला होगी ?”
“क्या कहते हो बापू ! इसमें झकट क्या है ? अब भी तो दिन-
रात आप खटते-खपते हो, लेकिन महाराज का ध्यान नहीं है तो परिश्रम
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