वंग - दर्शन | Vang Darshan

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Vang Darshan by महादेवी वर्मा - Mahadevi Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रासमणि कल सन्ध्या के समय, दूर के विजन ग्राम से आकर ठहरी थी यह यहाँ रासमणि तरुतल छाया पाकर । नहीं जा सकी बस्ती तक वह, कठिन हुए दो डंग थे, डगसग डगमसग सग था उसका, डगसग डगमग पग थे । * जाय कहाँ वह, दुलंभ उसको सुट्ठी भर भी चावल, जैसा उसके लिए गाँव है, बेसा ही यह तरुतल। दी सहायता उसे थ्रान्ति ने, मदुल हो उठी घरती ; भारी पलकों पर आ उतरी निद्रा जगती मर की। भूल गई सब, कहाँ कोन वह, किसकी है वह जाई, उस उजाड़ से इस उजाड़ तक चलकर केसे आई। भूल गई यह, कहीं पलायित कब का जीवनधन है, नहीं विराम, उसे जीवन में एक अभीष्ट भ्रमण है। भला भूलना ही उस शिशु का, जिसे एक ही रट थी, अन्त समय तक भी घनिकोचित दुग्धपान की हठ थी । निद्रित थी, अथवा मूच्छित थी, नहीं किसी ने देखा, खिसक गई नभ में नीचे को अद्धवन्द्र की लेखा। कि ह॒हर उठा वह बृक्ष अचानक, मुख उल्कक ने खोला, पवन-प्रेत उस अन्धकार में पत्र पत्र पर डोला। जगी रासमणि, भमदेह में जगे चेतनाचेतन, जीबन भार उतरता हो ज्यों, बोध हुआ हलकापन । सहसा किसी स्वजन परिजन की याद न उसको आई, दीखी दो पूरे बेलों की प्रबल प्रच॑ड लड़ाई। ध्यान गया तब खेत-ओर, जो भरा हुआ था जल से, दीख पड़ा फिर वह घर, जो था रिक्त धान चावल से । चावल नहीं, ध्यान में आया, कॉपी वह विकला सी, तरह




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